सोमवार, 21 मई 2007
एनआरआई बाज़ार ने बदले समीकरण
एनआरआई विषयों पर बनी फ़िल्में विदेशों में ख़ूब पैसा कमाती हैं
दस साल पहले तक शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि हिंदी फ़िल्मों के लिए विदेशों में इतना बड़ा बाज़ार खुल जाएगा कि फ़िल्म की आधी कीमत वहीं से निकल जाएगी.
मगर आज ऐसा हो रहा है. मिसाल के तौर पर करण जौहर की 'कभी अलविदा न कहना' को लीजिए. ये फ़िल्म भले ही पूरे भारत में सिर्फ़ 22 करोड़ का ही व्यवसाय कर पाई लेकिन विदेशों में इसने 32 करोड़ कमाए.
अक्षय कुमार-बॉबी दयोल की 'दोस्त-फ़्रैंड्स फ़ॉरएवर' हो या फिर अमिताभ-रानी-जॉन इब्राहम की बाबुल....ये भारत में फ़्लॉप हो जाती हैं मगर ब्रिटेन में ये दोनों फ़िल्में साल की टॉप पाँच में रहती हैं.
कहने का मतलब है कि अब भारतीय निर्माता,निर्देशक और लेखक ग्लोबल दर्शक को अपने ज़हन से बाहर नहीं कर सकते- अगर उन्हें पैसे कमाने हैं तो.
ये सिलसिला 10-15 साल पहले शुरू हुआ. अब फ़िल्मों का बजट विदेशी मार्केट को ध्यान में रखकर बनाया जाता है. अगर कोई निर्माता 35-40 करोड़ की फ़िल्म बनाता है तो उसे पता है कि विदेशों के मार्केट से करीब 10-12 करोड़ तो वापस आ ही जाएँगे.
हालांकि इसका मतलब ये नहीं है कि हर फ़िल्म जो पैसा कमाती है उसमें विदेशी बाज़ार से कमाए गए पैसा का ही हाथ होता है.
चंद सितारों का क़ब्ज़ा
ब्रिटेन में ब्रिटिश एकैडमी ऑफ़ फ़िल्म और टेलीविज़न आर्टस ने बाफ़्टा वीक मनाया था
चंद फ़िल्मी सितारें हैं जो विदेशों में बहुत चलते हैं और उन्हीं की फ़िल्मों को बड़ी कीमत मिलती है.
इस सूची में सबसा बड़ा नाम आता है शाहरुख़ खान का. उनके अलावा अक्षय कुमार, सलमान खान, ऋतिक रोशन, आमिर खान, काजोल, ऐश्वर्या राय, प्रीति ज़िंटा और रानी मुखर्जी भी विदेशों में काफ़ी मशहूर हैं.
ब्रिटेन में बॉलीवुड की अब तक की 25 टॉप फ़िल्मों में दस फ़िल्में शाहरुख़ खान की हैं- कभी खुशी कभी ग़म, कभी अलविदा न कहना, वीर ज़ारा, देवदास और कुछ-कुछ होता है.
अमिताभ बच्चान अकेले ऐसे कलाकार हैं जो चरित्र भूमिका करते हैं लेकिन इतने लोकप्रिय हैं.
लेकिन ये भी सच है कि अब भी हिंदी फ़िल्मों को क्रॉसओवर दर्शक नहीं मिल पाएँ हैं.
मीरा नायर की 'मॉनसून वैडिंग', गुरिंदर चड्ढा की 'बेंड इट लाइक बेकम' और दीपा मेहता की वाटर विदेशियों को पसंद आई हैं मगर असल में ये भारतीय फ़िल्में नहीं गिनी जा सकती क्योंकि इन्हें बनाने वाले भारत से तो जुड़े हैं पर वे सब भारतीय मूल के लोग हैं.
नए दर्शक, नई कहानी
विदेशों का बाज़ार खुलने से हिंदी फ़िल्मों की कहानियाँ भी बदल गई हैं
विदेशों के बाज़ार खुलने से अब हिंदी फ़िल्मों की कहानियाँ भी वहाँ के दर्शकों को ध्यान में रखकर लिखी जा रही हैं.
अगर 'कल हो न हो' या 'कभी अलविदा न कहना' में किरदार अमरीका में बसे हैं तो सिर्फ़ इसलिए नहीं कि वहाँ शूटिंग के लिए ख़ूबसूरत लोकेशन हैं बल्कि इसलिए भी कि वहाँ रहने वाले लोग फ़िल्म की कहानी को अपनी कहानी से जोड़ सकें.
सलाम नमस्ते के मुख्य किरदार ऑस्ट्रेलिया में इसलिए रहते हुए दिखाए गए हैं क्योंकि भारत के कई दर्शकों को शायद विवाह से पहले बच्चा पैदा करने जैसा विषय रास नहीं आता.
लेकिन अगर किरदार ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं तो लिव-इन और विवाह पूर्व बच्चे जैसा चलन आसानी से मानने में आता है. फिर ऐसे फ़िल्में विदेशों में धंधा भी खूब करती हैं.
चोपड़ा कैंप और करण जौहर जैसे फ़िल्मकारों पर कभी-कभी आरोप लगते हैं कि वे विदेशों में बसे भारतीयों के लिए ही फ़िल्में बनाते हैं. मगर सच ये भी है कि कोई भी व्यक्ति ऐसा ही सोचेगा.
किस्सा पैसे का..
डॉलर और पाउंड रुपए के मुकाबले बहुत मज़बूत हैं. भारत में दस लोगों के देखने से जो कमाई होगी वो लंदन या अमरीका में एक या दो लोगों के देखने से हो जाती है.
ऐसे में क्यों ने कोई निर्माता-निर्देशक विदेशी दर्शकों के बारे में सोचे? आख़िरकर अंत में तो बात पैसों पर ही आकर रुकती है.
जो निर्देशक इस चलन से नाखुश हैं वो ज़्यादातर ऐसे लोग हैं जिन्हें विदेशी दर्शकों को भा जाने वाली कहानियाँ शायद मिलती नहीं हैं.
और यही कारण है कि आज कल बड़े बैनर नए हीरो को इतनी आसानी से मौका नहीं देते.
शाहरुख खान की फ़िल्म सिर्फ़ विदेशों में ही 20-30 करोड़ का व्यापार कर सकती है मगर किसी नए हीरो की फ़िल्म शायद दो-चार करोड़ पर ही रुक जाए.
इतना घाटा कौन सहना चाहेगा? आदित्य चोपड़ा और करण जौहर जैसे फ़िल्मकार तो हरगिज़ नहीं.
साभार : बीबीसी हिंदी
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