पूर्णता की ओर अग्रसर पुस्तक ‘संतुलन का सच’ के पहले पृष्ठ की कविता-
Aksa Beach, Mumbai |
उसमें भी मैं था
मुझमें भी मैं था
चीख भी मेरी थी
दर्द भी मेरा था
तूफान भी मेरा था
आनंद भी मेरा था
उसमें भी भगवान थे
मुझमें भी भगवान थे
सब कुछ सहज था
कायनात
का साथ था
समंदर का किनारा था
बस उसका ही सहारा था
तन में अगन पर लय था
मन भी मगन,
लय में था
मुझमें वो थी या उसमें मैं था
सच में समझना कठिन था
दोनों
में समर्पण था
मन एक, तन भी एक था
समंदर की दूर उठती
लहरें भी बेचैन थीं
जल्दी आना चाहतीं
पर नियमों में आबद्ध थीं
उसकी अपनी प्रक्रिया थी
हमारी अपनी प्रक्रिया थी
मगर समा
खामोश था
सबमें अपना जोश था
दूर दिखती बड़ी लहर
पास आती छोटी लहर
समंदर का मधुर कंठ था
कर्णप्रिय
गीत-संगीत था
न स्पीकर का शोर था
न डीजे का उन्माद था
प्रकृति का यह सृजन था
नए सृजन का
आगाज था
सांसों का ज्वार-भाटा था
वहां भी समंदर का गीत था
सबकुछ स्वचालित था
स्वानुभूत,
स्वाभाविक था
समंदर विशाल था
अनंत था, शून्य था
शायद यही सत्य था
शाश्वत था सनातन था
संतुलन
की पुस्तक
पूर्णता चाहती थी
मुझे मिलन का तत्व
समझाना चाहती थी
यह पूर्णता की प्रयोगशाला थी
संपूर्ण
जीवन की पाठशाला थी
मैं छात्र, मेरी जान छात्रा थी
कायनात हमारी मार्गदर्शक थी
जिंदगी
का एक और सफर पूरा हुआ
नए सफर का आधार पुख्ता हुआ
यही संतुलन का नियम है
सृष्टि के संचालन
का सच है
नतमस्तक हूं, आभारी हूं मैं सबका
गुड़िया का, सृष्टि
की हर रचना का
समूची सृष्टि का
सृष्टि के नियंता का।।
समूची सृष्टि का
सृष्टि के नियंता का।।