वाह! जिन मूल्यों की स्थापना के लिए
दुनिया के तमाम संतों, समाज सुधारकों ने अपना जीवन लगा दिया, उसे संतुलन के नियम ने
हमारे देश में एक झटके में कर दिया। ठीक उसी तरह जैसे प्रकृति ने २४ घंटे में ही केदारनाथ
धाम को साफ कर दिया था। जहां नाथ बच गए और धाम गायब हो गया। आइये उक्त दो पंक्तियों
की सिलसिलेवार व्याख्या करते हैं।
भारत ने राजशाही शासन प्रणाली में ही अपना
विकास किया है। देशी-विदेशी कई राजाओं का शासन हमने देखा है। कई राजा जनाभिमुख भी रहे
हैं। रामराज्य की संकल्पना या फिर अस्तित्व, जो भी हो मगर यह शासन प्रणाली पूरी तरह
जनाभिमुख थी जिसमें जनता सर्वोपरि है। परन्तु ऐसी कोई शासन प्रणाली जो जनता द्वारा
जनता के लिए शासित हो, वो लोकतंत्र है। हमें अमेरिका का शुक्रगुजार होना चाहिए जिसने
लोकतंत्र की अवधारणा के प्रति समूची दुनिया में विश्वास पैदा किया। आज का मुद्दा भारतीय
लोकतंत्र का है।
हमारे देश के लोकतंत्र को तीन आधार स्तंभों पर खड़ा किया गया है- विधायिका,
कार्यपालिका और न्यायपालिका। चौथा स्तंभ माना जाता है मीडिया। दरअसल, माना जाता है
कहना गलत है। कहना चाहिए कि मानना पड़ा है। यानी तीन घोषित स्तंभों के बीच यह स्वनिर्मित
चौथा स्तंभ अपने आप विकसित हो गया। यह तब-तब अधिक मजबूत हुआ है, जब-जब अन्य तीन स्तंभों
में असंतुलन हुआ है। या किसी भी स्तंभ ने असंतुलित, अमर्यादित व्यवहार किया है। वो
भारत की आजादी हो, विभाजन हो, लोहिया की असंतुलित समाजवादी अवधारणा हो, इंदिरा गांधी
की इमरजेंसी हो, जयप्रकाश नारायण की अगुवाई वाला आंदोलन हो, गैर कांग्रेसी सरकारों
की शुरुआत हो, मुक्त अर्थव्यवस्था व पूंजीवाद की ओर प्रस्थान हो, अटलजी-मनमोहन सिंह
का प्रधानमंत्री बनना हो और अब आम आदमी पार्टी का अनायास ही उभर जाना हो..., हर समय
संतुलन के नियम ने अपना रंग दिखाया है।
संतुलन का नियम
समूचा ब्रह्मांड संतुलन के नियम पर कार्य
करता है। यह नियम इस ब्रह्मांड के हर जीव-निर्जीव अस्तित्व पर लागू होता है। इसके नियम
तय हैं जिनमें थोड़ा भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता। यह नियम शाश्वत है, अकाट्य है,
ब्रह्मांड की रचना का आधार है और यही सत्य है। हमारे शरीर की संरचना से लेकर उसके विकास
तक, हर जगह संतुलन का नियम ही कार्य करता है। फिर समाज तंत्र, राष्ट्रतंत्र और विश्वतंत्र
इससे अछूता कैसे रह सकता है? संतुलन एक प्रक्रिया है। इसी प्रक्रिया को समझाने के लिए
न्यूटन ने क्रिया के बराबर विपरीत प्रतिक्रिया का नियम सामने रखा। चूंकि यह नियम जड़
नहीं है इसलिए जड़ बुद्धि की समझ से परे है। जब-जब असंतुलन बढ़ता है, यह दिखने लगता
है। जैसे प्राकृतिक आपदा हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि असंतुलन हुआ है, उसी प्रकार
वर्तमान राजनीतिक परिदृष्य हमें बता रहा है कि असंतुलन ने अपनी हदें पार कर दी हैं।
भ्रष्टाचार तो उसका एक छोटा सा अंग है, दरअसल यह मामला एक राजनीतिक तंत्र लोकतंत्र
की स्थापना का है।
खेल जारी है
दिल्ली चुनाव नतीजों पर सतही प्रतिक्रिया व्यक्त करने
वालों को शायद केदारनाथ धाम के जलमग्न होने जैसी किसी प्राकृतिक आपदा का भान नहीं है।
आम आदमी पार्टी सहित देश के समस्त राजनीतिक दलों को संतुलन का यह खेल समझना होगा। नहीं
समझेंगे तो भी संतुलन का नियम काम करेगा। समझना इसलिए जरूरी है ताकि संतुलन का नियम
अपनी स्वाभाविक स्थिति येन-केन-प्रकारेण पर उतारू न हो जाए। दिल्ली में कांग्रेस का
सफाया और आम आदमी पार्टी की धमाकेदार इंट्री इसी येन-केन-प्रकारेण का एक उदाहरण है।
एक बात ध्यान रखने की है कि संतुलन की प्रक्रिया स्वाभाविक व सहज होती है। इसमें असहजता
की कोई गुंजाइश नहीं है। मजे की बात यह है कि इस संतुलन की प्रक्रिया में जो असहज होता
है, वह भी सहजता से किनारे हो जाता है।
यह पार्टी नहीं आंदोलन हैइसी कारण आम आदमी पार्टी के
अभ्युदय को मैं सिर्फ चुनाव लड़ने या शासक बनने का हथियार नहीं मानता, क्योंकि यह एक
आंदोलन है। आंदोलन है लोकतंत्र की स्थापना का। अन्ना हजारे के दिल्ली के पहले आंदोलन
के समय भी मैंने कहा था कि अब यह आंदोलन नहीं थमेगा, इसमें कोई रहे या न रहे।.....
अब चूंकि यह एक प्रक्रिया है एक बदलाव की तो माना जाना चाहिए कि आप की संपूर्ण टीम
इसका एक हिस्सा है। प्रक्रिया है संतुलन की।
प्रचारतंत्र की मुखरता
आजादी के बाद काफी साल तक विधायिका
लोकतंत्र पर हावी रही। जब वो भ्रष्ट यानी असंतुलित हुई यानी जब जन-नेता यह भूल गए कि
वे लोकतंत्र के पहरी मात्र हैं तो कार्यपालिका हावी हो गई। असंतुलन फिर हुआ, अफसर भ्रष्ट
हो गए। आईएएस लौबी खुद को देश का भगवान समझने लगी तो संतुलन के नियम ने फिर खेल दिखाया
और न्यायपालिका ने मोर्चा संभाल लिया। कई ऐतिहासिक निर्णयों ने कथित जन-प्रतिनिधियों
और अफसरों को जेल का रास्ता दिखा दिया। न्यायपालिका ने संसद को भी यह बताया कि उसे
कानून बनाते समय किन मापदंडों का ध्यान रखना चाहिए। तमाम विवादों के बावजूद न्याय पालिका
अब तक असंतुलित नहीं हुई है। संतुलन की इन सभी प्रक्रियाओं के बीच प्रचारतंत्र यानी
मीडिया ने अपना खेल बखूबी खेला है। जिधर दम, उधर हम की उसकी नीति एक तरह से हमारे देश
के लिए फायदेमंद ही रही है। आज प्रचारतंत्र हावी दिख रहा है।
समूची व्यवस्था को यह समझना होगा कि प्रचारतंत्र हमारे
देश की समग्र लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक हिस्सा है। यह आधारभूत साधनों में से एक है।
यह साध्य नहीं है। साध्य है लोकतंत्र। एक ऐसा शासन जो जनता द्वारा जनता के लिए संचालित
हो। एक ऐसी व्यवस्था जिसकी मूल आत्मा ही जनाभिमुख है।
आश्चर्यजनक किन्तु सत्य
समसामायिक परिस्थिति के तटस्थ
विश्लेषक के रूप में जब मैंने आम आदमी पार्टी के तौरतरीकों पर गहराई से विचार किया
तो अवाक् रह गया। हमारे देश में एक ऐसी पार्टी सहजता से पैदा हो गयी है जहां न धर्म
की बाद है, न जाति की..., जहां न पंथ की बात है, न दर्शन की..., जहां न भाषा की बात
है, न क्षेत्र की..., इतना ही नहीं यहां पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद जैसे किसी राजनीतिक
वाद की भी चर्चा नहीं है। यानी निर्विवाद...। यहां सिर्फ एक ही वाद है और वो है जनता-वाद।
जन-वाद ही मानवता-वाद की शुरुआत है जहां समता, समानता के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ता,
वह स्वमेव अस्तित्व में आ जाता है। संतुलन की यह प्रक्रिया स्वमेव है, स्वनिर्मित है।
इसका अपना विधान है। इसका अपना तंत्र है। इसकी चरम स्थित वसुधैव कुटुंबकम् की है। चरैवेति,
चरैवेति यानी चलते रहो... चलते रहो... उस राह जहां ले जा रहा है ये संतुलन का नियम,
कुछ मीठे, कुछ कड़वे प्रसंगों को हमारे लिए छोड़े। मगर इसकी परिणति अच्छी है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चत् दुःख भाग्भवेत।।