मालूम हो कि आदर्श सोसाइटी घोटाले में कथित लिप्तता के कारण तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को हटा कर दिल्ली से पृथ्वीराज चव्हाण को मुख्यमंत्री पद पर बैठाया गया था. हमेशा केंद्र की राजनीति में सक्रिय पृथ्वीराज चव्हाण अभी तक महाराष्ट्र की राजनीति में स्वयं को असहज ही महसूस करते रहे हैं. उनके निकटवर्ती इस बात की पुष्टि करेंगे कि पृथ्वीराज चव्हाण मुंबई में रम नहीं पा रहे हैं. दूसरी ओर हाल के दिनों में बड़े घोटालों से घिरी केंद्र सरकार विशेषकर प्रधानमंत्री कार्यालय ऐसे मामलों से निपटने में विफल होता रहा है. पृथ्वीराज चव्हाण महाराष्ट्र जाने के पूर्व केंद्रीय मंत्री के रूप में प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े थे. सभी जानते हैं कि चव्हाण न केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के भी विश्वस्त रहे हैं. हालिया घोटालों के कारण प्रधानमंत्री को चव्हाण की कमी खलती रही है. प्रधानमंत्री कार्यालय ऐसे मामलों से निपटने में पूरी तरह विफल रहा है. यह चर्चा अब आम है कि अगर पृथ्वीराज चव्हाण रहते तब प्रधानमंत्री कार्यालय को ऐसी शर्मनाक स्थिति से नहीं गुजरना पड़ता. यही नहीं चव्हाण के मुंबई जाने के बाद प्रधानोमंत्री कार्यालय और १० जनपथ के बीच संबंध भी काफी बिगड़ गए. संवादहीनता की स्थिति ऐसी पैदा हुई कि सत्ता के दोनों केंद्र कभी-कभी परस्पर उल्टी दिशा में चलते दिखे. प्रधानोमंत्त्री मनमोहन सिंह की तरह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी पृथ्वीराज चव्हाण की कमी खलने लगी. हालांकि पृथ्वीराज चव्हाण की दिल्ली वापसी का विरोध करने वालों की भी कमी नहीं है. किन्तु दिल्ली में चव्हाण की प्रमाणित उपयोगिता के मद्दे नजर प्रधानमंत्री और कांग्रेस आध्यक्ष दोनों की इस बात पर सहमति बन गई है कि पृथ्वीराज चव्हाण को दिल्ली वापस प्रधानमंत्री कार्यालय में बुला लिया जाए. दूसरी ओर नए मुख्यमंत्री के लिए विलासराव देशमुख के नाम पर भी सहमति बन गई है. देशमुख भी मुंबई से दिल्ली आकर कभी सहज नहीं हो पाए. महाराष्ट्र की राजनीति में वापसी के लिए वे हमेशा प्रयत्नशील रहे. भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे के आंदोलन ने उनके लिए रास्ता खोल दिया. अन्ना हजारे की लोकप्रियता और कांग्रेस विरोधी तेवर से परेशान कांग्रेस नेतृत्व ने विलासराव देशमुख को पुनः मुख्यमंत्री पद सौंपने का निर्णय लिया तो इसलिए कि वे अन्ना हजारे के काफी निकट रहे हैं. रामलीला मैदान में अन्ना हजारे के अनशन को समाप्त करवाने में विलासराव देशमुख ने केंद्र सरकार की ओर से निर्णायक भूमिका अदा की थी. कांग्रेस नेतृत्व का मानना है कि महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख को वापस भेजे जाने से वे अन्ना हजारे को कांग्रेस विरोधी रवैये से हटाने में सफल हो पाएंगे. अन्ना हजारे ने पूर्व में भी हमेशा विलासराव देशमुख की बातों को वरीयता दी है. कांग्रेस नेतृत्व नहीं चाहता कि अन्ना हजारे राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस विरोधी अभियान चलाएं. अगले वर्ष उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस नेतृत्व काफी चिंतित है. चूंकि उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की प्रतिष्ठा दांव पर होगी, कांग्रेस आलाकमान हर संभव कोशिश करेगा कि अन्ना हजारे वहां कांग्रेस के खिलाफ चुनाव प्रचार न करें. इस काम के लिए विलासराव देशमुख से अधिक योग्य व कुशल फिलहाल कांग्रेस में अन्य कोई नहीं है. इसी कारण कांग्रेस नेतृत्व ने महाराष्ट्र की गद्दी पुनः विलासराव देशमुख को सौंपने का फैसला किया है.
शहरी निकायों के चुनाव
इसी के साथ महाराष्ट्र में सात म्यूनिसिपल कार्पोरेशन के चुनाव भी सर पर हैं. इन्हें देखते हुए भी अन्ना के विरोधी तेवरों को शांत करना कांग्रेस नेतृत्व की मजबूरी है. इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि महाराष्ट्र में विपक्ष की महत्वपूर्ण घटक शिवसेना के साथ पहले से ही अन्ना का छत्तीस का आंकड़ा रहा है. हाल के दिनों में शिवसेना जिस तरह से अन्ना के विरोध में मुखरित हुई है, उससे अब प्रदेश में कांग्रेस को लगता है कि वह किसी तरह इस मुखालफत को भुना ले. इससे कम से कम महाराष्ट्र में किसी भी प्रकार की किरकिरी होने से बच जाएगी. वैसे भी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नितिन गड़करी का गृहनगर नागपुर की महानगर पालिका में जल्द ही चुनाव होने वाले हैं. नागपुर में इस समय भाजपा का शासन है. और अगले लोकसभा चुनाव में गडकरी के यहां से चुनाव लड़ने की पूरी संभावना है. ऐसे में कांग्रेस चाहेगी कि कुछ ऐसा हो जाए जिससे गड़करी का ध्यान देश की राजनीति से भंग हो और वो राज्य में सीमित हो जाएं. वैसे भी अगर नागपुर में भाजपा हार गई तो कांग्रेस को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पर हमला बोलने का मौका जरूर मिल जाएगा.