अध्यात्म की ओर बढ़ चुके रूझान ने कहीं न कहीं प्रकृति से नजदीकी बढ़ा दी है। यही कारण है प्रकृति की हर लीला, हर रचना को समझने की स्वाभाविक सी प्रक्रिया शुरू हो गई है। ब्रह्मांड के आकर्षण का नियम ही यह है कि जब जो विचार बलवती होते हैं, ब्रह्मांड या ईश्वर की तमाम नियामतें उससे संबंधित वाकयातों को आपकी ओर आकर्षित होने लगते हैं। कारण जो भी हो परन्तु गुरु पूर्णिमा की पूर्व संध्या प्रकृति के बेहद करीब पहुंच गया। लगभग पाँच घंटे कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला। हरियाली से ओत-प्रोत इस स्थान पर नागपुर शहर में घायल, बीमार, मरणासन्न अवस्था के पशु-पक्षियों की चिकित्सा, उनका पुनर्वसन होता है।
संयोग भी अजीब था।
कुछ हफ्ते पहले पशुप्रेमी देश की जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता श्रीमती मेनका
गांधी नागपुर आई थीं। मुझे भी इसकी जानकारी थी। उस समय मुझे पता चला कि नागपुर में
भी प्राणियों के कल्याण के लिए काम हो रहा है। और नागपुर में इस काम का बीड़ा
उठाया हुआ है करिश्मा गलानी जी ने। खैर, मेनका जी तो आकर चली गईं परन्तु मन में
बात रह गई कि ये लोग क्या करते हैं, कैसे करते हैं, इसे देखने का मौका तो मिले।
अदृश्य में ही परन्तु प्रकृति का काम तो जारी था। परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि
करिश्मा जी से सम्पर्क हुआ। लगा नहीं कि पहले कभी नहीं मिले। विचारों का
आदान-प्रदान हुआ। उनके काफी फोटोग्राफ्स देखे। उनके अनुभव सुने तो ईश्वर,
ब्रह्मांड, प्रकृति के प्रति शरणागति और बढ़ गई। एक बात और समझ में आ गई कि
करिश्मा जी काफी व्यस्त हैं। इनसे वैचारिक आदान-प्रदान करने के लिए समय निकालना
कठिन है। खैर, ईश्वर ने यह परेशानी भी हल कर दी जब मुझे पता चला कि करिश्मा जी हर
शनिवार, रविवार को पशु-पक्षियों के लिए भांडेवाड़ी में बने शेल्टर में जाती हैं और
कई घंटे वहीं बिताती हैं।
तय हुआ कि मैं उनके
साथ ही शेल्टर पर जाउंगा। मैं उनके घर पहुंचा। वो आईं और गाड़ी में हमारा सफर शुरू
हुआ। करिश्मा जी के लिए तो यह समर्पित सेवा का अंग था, मगर उस समय मेरे लिए किसी
रोमांचकारी यात्रा का आगाज़ मात्र था। गाड़ी में बैठते ही उन्होंने पहले तो कहा कि
सामने बेकरी है, वहाँ गाड़ी रोकियेगा। मैंने बेकरी के सामने गाड़ी रोकी। वो बेकरी
में गईं तब तक मैंने चाय-पान का कार्यक्रम निपटा दिया। जब वो आईं तो मैंने देखा
उनके हाथ में टोस्ट से भरी एक बड़ी सी थैली है। उन्होंने बताया कि वो जब भी शेल्टर
में जाती हैं, टोस्ट लेकर जाती हैं। खैर, जैसे ही वहाँ से गाड़ी शुरू किया,
उन्होंने कहा कि एक कोयल घायल है, बैद्यनाथ चौक चलिए। मैंने आज्ञाकारी चालक की तरह
गाड़ी बैद्यनाथ चौक पर निर्धारित गंतव्य की ओर ले चला। वहाँ पहुंचे तो पता चला
कोयल गायब है। अब मैडम का पारा चढ़ने लगा। जैसे वो कोयल उनकी अपनी हो। चाय दुकान
में खड़े दो-तीन लोगों को उन्होने कोयल को खोजने के काम पर लगा दिया। उनकी बेचैनी
देखकर मुझसे भी नहीं रहा गया और मैं भी वहाँ कोयल को खोजने लगा। कोयल तो नहीं मिली
मगर उन पाँच मिनटों में मैंने गौर से उनके चेहरे पर कोयल के लिए बेचैनी के जो भाव
देखे तो समझ में आ गया कि मूक पशु-पक्षियों के लिए उनका ममत्व किस तरह छलकता है।
वहाँ से भांडेवाड़ी की यात्रा शुरू हुई। किसी का फोन आता रहा, शेल्टर का पता पूछने
के लिए और वो बताती रहीं। मैंने सोच लिया था कि थोड़ा भी ज्ञान नहीं बाँटना है।
बस, खामोशी से देखना, सुनना है। उस समय यह सब लिखने की भी कोई योजना नहीं थी। मैं
तो सिर्फ प्रकृति की नियामतें देखना और उसके निरालेपन को हृदय की गहराइयों से
महसूस करना चाहता था।
रास्ते में उन्होंने
मुझे प्राणियों से संबंधित कानूनों की जानकारी दी। बाम्बे हाईकोर्ट के सराहनीय
प्रयासों के संबंध में बताया। कुछ ही देर में हम भांडेवाड़ी स्थित शेल्टर में
पहुंच गये। करिश्मा जी गाड़ी से उतर कर जैसे ही गेट से अंदर गईं, ८-१० श्वानों ने
उन्हें घेर लिया और पूरे मटकते हुए, नाज-नखरों के साथ उनकी अगवानी की। वहाँ एक
युवक-युवति पहले से मौजूद थे। केयर टेकर लता उनके पति राजेश भी उपस्थित थे। मैंने
ध्यान दिया कि करिश्मा जी टोस्ट की थैली अपने हाथ में पकड़ी थीं, मगर किसी भी
श्वान ने उस पर अपनी नीयत खराब नहीं की। ये श्वान ऐसे भी नहीं थे जिन्हें बचपन से
ट्रेनिंग दी गई हो। ये तो गलियों में रहने वाले श्वान थे, जिन्हें घायल या बीमारी
की अवस्था में यहाँ लाया गया था। मैंने करिश्मा जी के साथ पूरा शेल्टर घूमा।
आईसीयू (गहन चिकित्सा कक्ष) भी देखा। मैं सिर्फ देखता रहा। और करिश्मा जी मुझे
बताती भी रहीं और वहाँ सेवा कार्य भी करती रहीं। एक कोने में घोड़ा और खच्चर खड़े
थे। मुर्गियाँ थीं। कुत्ते थे। करिश्मा जी हर प्राणी के पास जातीं, खासकर कुत्तों
की तो जैसे पूरी कुंडली ही उनके पास थी। हर किसी को व्यक्तिगत नाम से पुकार कर
उनसे बात करती थीं। इनमें चार ऐसे श्वान थे जो लगातार करिश्मा जी के साथ रहते थे।
जैसे पेट्रोलिंग कर रहे हों। बीमार कुत्ते को लाये युवक-युवति भी साथ थे। बातें
होती रहीं। करिश्मा जी उन्हें प्राणियों के लिए कुछ करने के लिए प्रोत्साहित करती
रहीं।
इनके जाने के बाद एक
११वीं की छात्रा मुस्कान जैन अपनी माँ के साथ आ पहुंची। पता चला कि उसने एक बीमार
पपी (शिशु श्वान) को रास्ते से उटाकर घर लाया था। डाक्टर से इलाज कराने के बाद इस
शिशु को इस शेल्टर में छोड़ गए थे। वैसे डाक्टर ने बता दिया था कि यह शिशु नहीं
बचेगा। बात सही साबित हुई, उस शिशु की मृत्यु हो गई थी। मुस्कान के चेहरे की
मुस्कान गायब थी। आंखों से अविरल अश्रु धाराएं प्रवाहित थीं। मैंने भी इधर-उधर की
बातें कर मुस्कान का ध्यान बंटाया। मैं तो आश्चर्यचकित था कि एक सड़क पर मिले पपी
के लिए इतनी संवेदना? इतना प्यार? इतनी संवेदना तो हमें अपने बुजुर्ग माँ-बाप के
लिए नहीं होती।
अब तक सूरज ढल चुका
था। मुस्कान अपनी माँ के साथ चली गई। करिश्मा जी फिर से घायल श्वानों की मरहमपट्टी
में व्यस्त हो गईं। कौन दुवला है, कौन कैसा दिख रहा है, कौन किस एरिया से लाया गया
है.... सबका नाम लेकर करिश्मा जी केयरटेकर लता को आवश्यक निर्देश देती रहीं।
सूरज ढलते ही अवतरण
हुआ केसरवानी जी का। एक बड़ा सा थैला लेकर आए थे। पता चला ये हर रविवार को जानवरों
के लिए दूध लेकर आते हैं। मुझे लगा कि कमाई अच्छी होगी तो ले आते हैं। कौतुहलवश
मैंने करिश्मा जी से पूछ ही लिया। उन्होंने बताया कि केशरवानी जी सुबह पोहे का
ठेला लगाते हैं। अब मेरी उत्सुकता बढ़ी, तो मैंने केशरवानी जी से पूछा कि आप ये
पैसे बचा लिया करिए, यहाँ क्यों खर्च करते हैं। केशरवानी जी का जवाब था, कि काफी
दर्द होता है, इन श्वानों की हालत गलियों में देख कर। मुझे जो कमाई होती है, उसका
आधा यहाँ खर्च करता हूं। आनंद मिलता है।
चौकस निगाहें- सूरज
ढलने के समय हमलोग मेन गेट पर खड़े बातें कर रहे थे। करिश्मा जी भी थीं। कुछ समझा
रही थीं। कुछ श्वान बाहर थे, कुछ अंदर थे। अचानक करिश्मा जी सड़क पर दौड़ कर गईं
जहाँ तीन-चार श्वान थे। और जोर से आवाज देने लगीं- लता..., लता....। लता भागे-भागे
आई। तब हमें समझ में आया कि ये श्वान बिल्ली के एक छोटे से शिशु को घेरे हुए थे।
लता और उसके पति राजेश ने उस बिल्ली के बच्चे को बाहर निकाला और कार्यालय के एक
प्यारे से पिंजड़े में डाल दिया। उस बच्चे को कोई नुकसान नहीं हुआ था। बाद में
मैंने करिश्मा जी से पूछा कि क्या आपको मालूम है कि आप हमसे बात करते हुए अचानक
बिल्ली के बच्चे के पास कैसे पहुंच गईं। उनका जवाब था नहीं मालूम। मैंने उन्हें
बताया कि यही प्रकृति की नियामत है, यही छठी इंद्री है। इसे ही जागृत करने के लिए तपस्वी
वर्षों साधना करते हैं। प्रकृति को बिल्ली के बच्चे को आश्रय देना था। चूकि आप
प्रकृति के नजदीक हैं, इसलिए आप अनजाने में ही वहाँ पहुंच गईं।
रात ९ बजे हम शेल्टर
से अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। हां, मैं वहाँ सबको सेवा करते देखता रहा, परन्तु
मैंने मदद के लिए एक तिनका भी नहीं उठाया। शायद मेरी आंखें हर लम्हे को स्मृति में
कैद कर लेना चाहती थीं। एक विश्वास जरूर दृढ़ हो चला कि ईश्वर, प्रकृति की हर
रचना, हर जीव का पोषण करता है। जिसका जैसा नजरिया, उसके वैसे विचार और उसका वैसा
ही संसार।