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शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

नक्सलवाद यानी पैसा, हथियार और सेना यानी लूट, सौदा और दहशत

नक्सलवाद
यानी
पैसा, हथियार और सेना
यानी
लूट, सौदा और दहशत
पिछले चार दशकों में नक्सलियों और अब माओवादियों ने जनांदोलन से ऊपर उठते हुए सश क्रांति के नाम पर किसी देश की फौज की तर्ज पर अपना ढांचा खड़ा कर लिया है। मतलब साफ है कि बाकायदा सेना की संरचना तैयार करने के लिए उन्हें धन, मानवबल और हथियारों की आवश्यकता होती है। हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ में जब्त हथियारों से यह बात साफ हो गई है कि नक्सली न सिर्फ विदेशी हथियार इस्तेमाल करते हैं बल्कि उनके संपर्क सूत्र हमारे देशकी आयुध निर्माणियों तक भी फैले हुएहैं। गत वर्ष छत्तीसगढ़ के जशपुर में हथियारों से भरा ट्रक पकड़ाया था, उसमें हथियार आर्डिनेंस फैक्टरी, पुणे के भी थे। इससे अब यह धारणा पुरानी हो चली है कि नक्सली लुटे हुए हथियारों पर ही निर्भर रहते हैं। एक नया तथ्य सामने आया है कि इस वामपंथी उग्रवाद का प्रत्येक समूह अन्य चीजों के अलावा हथियार खरीदने के लिए लाखों रुपये खर्च करता है। केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों द्वारा चलाए गए अभियानों के दौरान हाल ही में उग्रवादियों के जब्त रिकॉर्ड से खुलासा हुआ है कि नक्सली लेवी, फिरौती और धमकियों के जरिये सालाना करोड़ों रुपये जुटाते हैं। केंद्रीय सुरक्षा एजेंसी के अधिकारियों ने बताया कि नक्सलियों की अपनी कारपोरेट शैली में अकाउंटिंग पद्धति है। इनके दलम में आम तौर पर 20 से 40 सदस्य होते हैं और ये दल अपने क्षेत्रीय कमांडर को छमाही आधार पर अपनी आय और खर्च का ब्योरा देते हैं। ये ब्योरा इससे ऊपरी स्तर पर पहुंचाया जाता है। बताया जाता है कि हथियार खरीदने पर किए गए खर्च का लेखा-जोखा अलग से रखा जाता है। नक्सलियों का वर्चस्व देश के 40 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है जिसे रेड कॉरिडोर के नाम से जाना जाता है। जानकारों के मुताबिक इस रेड कारिडोर से प्रतिवर्ष नक्सलियों को 16 000 करोड़ रुपयों की आय होती है। नक्सलियों के पास धन इसकी उप समिति और क्षेत्रीय समिति से आता है। आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक नक्सली विदेश निर्मित विशेष रूप से चीन और अमेरिका द्वारा निर्मित हथियारों का ही ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। बिहार, झारखंड और आंध्रप्रदेश के माओवादी चीन सहित विदेशी छोटे हथियारों का इस्तेमाल करते हैं जबकि पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के नक्सली स्थानीय हथियारों से ही काम चलाते हैं। सूत्रों का कहना है कि रूस निर्मित एके सीरिज की बंदूकें माओवादियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं। सुरक्षा बलों ने नक्सलियों के कब्जे से एके-47, एके-56, पाकिस्तान निर्मित पीका गन और इजराइली स्नाइपर गन बरामद किए हैं। सूत्र बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के जवानों पर किए गए हमले में नक्सलियों ने आंध्र प्रदेश और उड़ीसा के पुलिस बल से चुराए गए हथियारों का इस्तेमाल किया था। सूत्रों के मुताबिक घटनास्थल के सर्वे से लगता है कि हमले में इस्तेमाल किए गए दो एलएमजी आंध्र प्रदेश के पुलिस बल या फिर उड़ीसा के पुलिस बल से चुराए गए थे। सूत्रों के मुताबिक पापा राव की अध्यक्षता वाली माओवादियों की केन्द्रीय समिति की कंपनी 3 और कंपनी 8 ने इनका इस्तेमाल किया था। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के अब तक के सबसे घातक हमले के बारे में ‘कुछ गलती’ होने की बात स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार ने इस घटना की जांच कराने की घोषणा तो कर दी है। लेकिन गृहमंत्री ने इन खबरों को गलत बताया कि हमले में प्रेशर बमों का इस्तेमाल किया गया था और स्थानीय पुलिस को सीआरपीएफ के ऑपरेशन की जानकारी नहीं थी। उन्होंने कहा हमले में शहीद 76 जवानों के सभी हथियार नक्सली अपने साथ ले गए। चिदंबरम का मानना है कि नक्सली सीमा पार से हथियार खरीदते हैं। सीमापार हथियारों के बाजार हैं। उन्होंने नेपाल, म्यांमार और बांग्लादेश के साथ भारत की खुली सीमा का जिक्र किया। नक्सलियों के वित्तीय स्रोतों के बारे में पूछे जाने पर गृह मंत्री ने कहा कि वे बैंक लूटते हैं और अपने इलाके की खनन कंपनियों से वसूली करते हैं।
सीआरपीएफ-पुलिस में तालमेल का अभाव
सीआरपीएफ के आला अधिकारी भले ही यह बयान दे रहे हों कि अब राज्य पुलिस के साथ बेहतर तालमेल किया जाएगा। लेकिन इस संबंध में पुराना अनुभव कुछअच्छा नहीं है। केंद्रीय सुरक्षा बल इन इलाकों में अपनी डफली अपना राग अलापते नजर आते हैं। हालयिा दिनों में सीआरपीएफ ने कुछ कोशिशें ग्रामीणों के बीच अपनी विश्वसनीयता बनाने के लिए की थीं लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। यही कारण है कि नक्सली सबसे अधिक राज्य के विशेष पुलिस अधिकारियों से खौफ खाते हैं। यही कारणहै कि सलवा जुडूम और एसपीओ का नक्सलियों के हमदर्द पुरजोर विरोध करते हैं। सीआरपीएफ के जवान तो इन नक्सलियों के लिए सबसे आसान टार्गेट माने जाते हैं। छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन का कहना है कि ‘दंतेवाड़ा मामले में सीआरपीएफ को भारी क्षति इसलिए पहुंची क्योंकि जवान जमीनी स्थिति का आकलन नहीं कर पाए। वे मुठभेड़ स्थल का अनुमान नहीं लगा पाए और जाल में फंस गए। हम आपरेशन ग्रीन हंट को अब अधिक मुस्तैदी से चलाएंगे।
नक्सलियों को धन मुहैया कराते एनजीओ
एक ओर प्रदेश स्तर से लेकर केंद्रीय सरकार नक्सलियों पर नकेल कसने की बात करती है, लेकिन विभिन्न एनजीओ के माध्यम से विदेशों से मिलने वाले धन के बल पर नक्सली अपने मंसूबों को पालने में सक्षम हो रहे हैं। हालिया घटनाक्रम में इस प्रकार के संकेत मिल रहे हैं कि नक्सली संगठनों को विदेशों से पैसा मिल रहा है और उसका माध्यम कई गैर सरकारी स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) हैं। जानकारों का कहना है कि कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा जनजातियों के कल्याण के नाम पर लिए जा रहे विदेशी धन का कुछ हिस्सा नक्सलियों के पास पहुंच रहा है। जाहिरतौर पर कोई भी संगठन बगैर आर्थिक मदद के नहीं चल सकता। सो, नक्सली संगठनों को भी विदेशों से धन मिलना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता। केंद्र और राज्य सरकार की मदद से चलने वाली ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसी योजनाओं का धन भी सीधे-सीधे नक्सलियों के पास पहुंचता है। यही कारण है कि इंद्रावती नेशनल पार्क जैसे धूर नक्सली इलाके में टाइगर कंजर्वेशन के नाम पर आबंटित करोड़ों की राशि कहां जाती है, किसी को पता नहीं है। सरकारें देश के दुर्गम इलाकों तक अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन की बात करती हैं लेकिन जब नक्सलियों के कब्जे वाले दुर्गम आदिवासी इलाकों में जाकर स्थिति का पता लगाया तो मामला वही ढाक के तीन पात ही नजर आता है। यानी विकास कार्यों पर खर्च की गईराशि कहां चली जाती है, इसका कोई पता नहीं। हां, कागजात जरूर तैयार रहते हैं। जानकार बताते हैं कि ग्राम पंचायत स्तर पर खर्च होने वाली राशि का 8 0 फीसदी सीधे नक्सलियों के पास पहुंच जाता है।
वाम दल यानी हाथी के दांत
नक्सली वारदातों से यह साफ हो गया है कि वामपंथियों के खाने के दांत अलग हैं और दिखाने के अलग। सीपीएम के कर्ताधर्ता नक्सलियों से किसी भी प्रकार के संबंधों से इंकार करते हैं। सीपीएम की राष्ट्रीय कांग्रेस में इस आशय का प्रस्ताव पास हो चुका है। लेकिन क्या जमीनी हकीकत में ऐसा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि तृणमूल कांग्रेस की तरफ नक्सलियों के रूझान के कारणवामदल ज्यादा परेशान हैं। क्योंकि पश्चिम बंगाल की सत्ता जाने का सदमा झेलना सीपीएम के बस का नहीं है। इसका एक ओर उदाहरण तब सामने आया जब सीआरपीएफ जवानों की शहादत पर जहां पूरा देश गम में डूबा हुआ था वहीं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय कैम्पस में कुछ धूर वामपंथी विचारधारा वाले छात्र संगठनों ने इस नरसंहार पर जश्न मनाया। इस मसले पर विवि परिसर में छात्र संगठनों के बीच झड़प भी हो गई। दो छात्र संगठनों डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन (डीएसयू) और ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आइसा) ने सुरक्षाबलों के नक्सलविरोधी अभियान ग्र्रीन हंट के खिलाफ विवि कैम्पस में ही एक सभा का आयोजन किया। यहां नक्सल समर्थक छात्र समूह जवानों के कत्लेआम पर जश्न मना रहा था।
बंगाल की सत्ता पर पिछले तीन दशक से वाम मोर्चा काबिज है और इसी दरम्यान नक्सली गतिविधि भी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती दिखीं। पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में जब नक्सलियों का हस्तक्षेप अपनी हदें पार करने लगा तो केंद्र सरकार ने हस्तक्षेप कर ऑपरेशन लालगढ़ चलाया। इस आपरेशन में लगभग १००० जवानों को लगाया गया। काफी विवाद हुआ। लेफ्ट समर्थित बुद्धिजीवियों ने अपनी सारी बुद्धिमत्ता इस आपरेशन के खिलाफ झोंक दी। कुछ दिन बाद ही बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने अपने तथाकथित वोट बैंक को बिखरता देख पूरे ऑपरेशन पर सवालिया निशान लगा दिया। लालगढ़ को तो नक्सलियों के कब्जे से मुक्त कराया गया परन्तु सिर्फ शाबासी बटोरने तक। बाद में यह आपरेशन भी काल की भेंट चढ़ गया।

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

कांग्रेसी मायाजाल में दफ़न शास्त्री की मौत

साप्ताहिक विज्ञापन की दुनिया, नागपुर के १० अप्रैल के अंक में प्रकाशित

पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की मौत का रहस्य हमेशा से भारत की जनता के लिए रहस्य ही रहा है। अब यह रहस्य और गहरा गया है। भारत सरकार सुभाषचंद्र बोस और लालबहादुर शास्त्री जैसे महापुरुषों के जीवन को इतना रहस्यमय क्यों मानती है? क्या इसकी वजह यह है कि अगर रहस्य उजागर कर दिए गए तो देश का इतिहास फिर से लिखना प‹डेगा और शास्त्रीजी और नेताजी उसमें जवाहरलाल नेहरू से भी ब‹डे नायक बन कर उभरेंगे? कांग्रेस को गांधी-नेहरू वंश के बाहर का नायक पसंद नहीं है। वह तो फिरोज गांधी को भी भूल गई है जिनकी पत्नी प्रधानमंत्री बनीं, बेटा प्रधानमंत्री बना और बहू सोनिया गांधी आज की तारीख में देश की सबसे ब‹डी नेताओं में से एक हैें। कांग्रेस ने सदैव अपने आभामंडल के अनुसार ही इतिहास को तो‹डामरो‹डा है। अब लालबहादुर शास्त्री के परिवार के सदस्यों खासकर शास्त्री की बेटी सुमन qसह के बेटे सिद्धार्थ qसह ने मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत भारत सरकार से मांगी गई जानकारी को यह कहकर नहीं दिए जाने को गंभीरता से लिया है कि अगर दिवंगत शास्त्री की मौत से जु‹डी जानकारी को सार्वजनिक किया जाएगा, तो इसके कारण विदेशी रिश्तों को नुकसान और देश में ग‹डब‹डी हो सकती है।

१० जनवरी १९६६ ! अहम दिन और ऐतिहासिक तारीख ! पाकिस्तान के नापाक इरादों को हिमालय की बर्फ और थार के रेगिस्तान में दफनाने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने सोवियत संघ की पहल पर एक ऐतिहासिक कारनामे पर अपनी मुहर लगा दी। इसकी चर्चा पूरी दुनिया में फैल चुकी थी। सच मानें तो दुनियाभर के देश अचम्भित नजरों से देख रहे थे। इस अजीम शख्सियत-भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को! इस सामान्य कद-काठी और दुबली काया वाली शख्सियत में साहस का अटूट माद्दा किस कदर भरा था। इन्होंने देश की बागडोर संभालने में जिस समझदारी और दूरंदेशी वाली सूझ-बूझ का परिचय दिया, वह ऐतिहासिक है। शास्त्रीजी ने अपने जिन फौलादी इरादों से पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी वह पाकिस्तान के लिए कभी न भूलने वाला एक सबक है।शास्त्रीजी की मौत के संबंध में आधिकारिक तौर पर जो जानकारी जनता तक पहुंची है, उसके अनुसार ११ जनवरी, १९६६ को दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की मौत दिल का दौरा प‹डने से उस समय हुई थी, जब वह ताशकंद समझौते के लिए रूस गये थे। पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी ललिता शास्त्री ने आरोप लगाया था कि उनके पति को जहर देकर मारा गया है। ताशकंद में भारत-पाक समझौता करने के लिए लगभग बाध्य किए गए भारतीय प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की वहां के एक होटल में आधी रात को दिल का दौरा प‹डने से हुई मौत को भारत सरकार एक राजकीय रहस्य मान कर चल रही है।दिवंगत प्रधानमंत्री के पुत्र सुनील शास्त्री ने कहा कि दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री उनके पिता ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लोकप्रिय नेता थे। आज भी वह या उनके परिवार के सदस्य कहीं जाते हैं, तो हमसे उनकी मौत के बारे में सवाल पूछे जाते हैं। लोगों के दिमाग में उनकी रहस्यमय मौत के बारे में संदेह है, जिसे स्पष्ट कर दिया जाए तो अच्छा ही होगा।दिवंगत शास्त्री के पोते सिद्धार्थनाथ qसह ने कहा कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने देश में ग‹डब‹डी की आशंका जताकर, जिस तरह से सूचना देने से इंकार किया है, उससे यह मामला और गंभीर हो गया है। उन्होंने कहा कि हम ही नहीं, बल्कि देश की जनता जानना चाहती है कि आखिर उनकी मौत का सच क्या है। उन्होंने कहा कि यह भी हैरानी की बात है कि जिस ताशकंद समझौते के लिए पूर्व प्रधानमंत्री गए थे, उसकी चर्चा तक क्यों नहीं होती है। उल्लेखनीय है कि सीआईएज आई ऑन साउथ एशिया के लेखक अनुज धर ने सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत सरकार से स्व. शास्त्री की मौत से जु‹डी जानकारी मांगी थी। इस पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने यह कहकर सूचना सार्वजनिक करने से छूट देने की दलील दी है कि अगर दिवंगत शास्त्री की मौत से जु‹डे दस्तावेज सार्वजनिक किए गए, तो इस कारण विदेशी रिश्तों को नुकसान, देश में ग‹डब‹डी और संसदीय विशेषाधिकार का हनन हो सकता है। सरकार ने यह स्वीकार किया है कि सोवियत संघ में दिवंगत नेता का कोई पोस्टमार्टम नहीं कराया गया था, लेकिन उसके पास पूर्व प्रधानमंत्री के निजी डॉक्टर आरएन चुग और रूस के कुछ डॉक्टरों द्वारा की गई चिकित्सकीय जांच की एक रिपोर्ट है।धर ने प्रधानमंत्री कार्यालय से आरटीआई के तहत यह सूचना भी मांगी है कि क्या दिवंगत शास्त्री की मौत के बारे में भारत को सोवियत संघ से कोई सूचना मिली थी। उनको गृह मंत्रालय से भी मांगी गई ये सूचनाएं अभी तक नहीं मिली हैं कि क्या भारत ने दिवंगत शास्त्री का पोस्टमार्टम कराया था और क्या सरकार ने ग‹डब‹डी के आरापों की जांच कराई थी। सूचना के अधिकार के तहत भी इस मौत के कारणों और स्थितियों की जानकारी नहीं दी जा रही। यह नहीं बताया जा रहा कि भारत के प्रधानमंत्री के होटल के कमरे में फोन या घंटी तक क्यों नहीं थी? उनके शरीर पर नीले दाग किस चीज के थे? इस अचानक हुई मौत के बाद शव का पोस्टमार्टम तक क्यों नहीं करवाया गया? क्या समझौते के बाद देश को जय जवान का नारा देने वाले शास्त्री जी ने अपने चश्मे के कवर में एक लाइन का नोट लिख कर रखा था जिसमें लिखा था कि आज का दिन मेरे देश के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है? १९६५ की ल‹डाई में भारत ने पाकिस्तान को निर्णायक रूप से पराजित किया था और बहुत सारी ऐसी जमीन भी छीन ली थी जिस देश पर १९४७ में पाकिस्तानी घुसपैठियों ने कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि qसह के अनिर्णय का लाभ उठा कर कब्जा कर लिया था। इसमें करगिल भी था। शास्त्री जी को तत्कालीन सोवियत संघ के नेताओं ने लगभग बाध्य किया कि वे यह जमीन वापस कर दें। शास्त्रीजी करगिल कस्बे को जैसे तैसे बचा पाए थे। अपने दस्तखत से शहीद हुए सैनिकों का बलिदान निरस्त करने का दुख उनकी मृत्यु का कारण बना। पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी ललिता शास्त्री ने आरोप लगाया था कि उनके पति को जहर देकर मारा गया है।नेताजी सुभाष चंद बोस के मामले में भी भारत सरकार का रवैया लचर रहा है। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें फरार मुजरिम घोषित किया था। कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हो चुके और महात्मा गांधी की जिद का आदर करते हुए इस्तीफा देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस का विश्वास इस बात से खत्म हो गया था कि अqहसा के जरिए अंग्रेजों को भगाया जा सकता है। उन्हें जबलपुर में जहां आज मध्य प्रदेश पर्यटन निगम का होटल कलचुरी है, के पास एक मकान में नजरबंद करके रखा गया था जहां से वे निकल भागे थे और रेलों, बसों और पैदल यात्रा करते हुए अफगानिस्तान के रास्ते रूस जा पहुंचे थे। और जर्मनी में अडोल्फ हिटलर से मुलाकात करने में सफल हुए थे। यह सच है कि हिटलर ने दुश्मन के दुश्मन को दोस्त मानते हुए सुभाष चंद्र बोस को आजाद वृहद् फौज बनाने में मदद की थी और इस फौज के प्रारंभिक सैनिक वे थे जो विश्व युद्ध में चीन के कब्जे में आ गए थे। चीन ने उन्हें रिहा कर आजाद qहद फौज का सिपाही बना दिया। इसके अलावा नेताजी की अपनी एक विश्वासपात्र कमान भी थी। नेताजी एक दिन जापान के ताईपेई हवाई अड्डे से उड़े और उसके बाद क्या हुआ इसके बारे में निर्णायक रूप से किसी को कुछ पता नहीं हैं? दस्तावेज मौजूद है लेकिन वे भारत सरकार के ताले में बंद हैं। सूचना के अधिकार के तहत भी उनकी जानकारी नहीं दी जा सकी। नेताजी के गायब होने के बारे में पहले शाहनवाज कमीशन और फिर हीरेन मुखर्जी कमीशन बिठाया गया मगर उन्हें भी यह दस्तावेज नहीं सौपे गए। सवाल पूछा जाना चाहिए कि अगर दस्तावेज नहीं देने थे तो फिर यह आयोग बिठाए ही क्यों गए थे? लालबहादुर शास्त्री के मामले में भी भारत सरकार का रवैया कुछ अलग सा है। चूंकि शास्त्रीजी के अस्तित्व को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता, भारत-पाक के निर्णायक युद्ध को खारिज नहीं किया जा सकता, इसलिए इतिहास में उनका जिक्र है। बच्चों को स्कूल में प‹ढाया जाता है कि जय जवान, जय किसान का नारा किसने दिया किन्तु स्वतंत्र भारत के निर्माण में उनकी भूमिका नेहरू के मुकाबले गौण ही मानी जाती है।
सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी
धर ने प्रधानमंत्री कार्यालय से आरटीआई के तहत यह सूचना भी मांगी है कि क्या उनकी मौत के बारे में भारत को तत्कालीन सोवियत संघ से कोई सूचना मिली थी? उनको गृह मंत्रालय से भी मांगी गई ये सूचनाएं अभी तक नहीं मिली हैं कि क्या भारत ने दिवंगत नेता का पोस्टमार्टम कराया था और क्या सरकार ने ग‹डब‹डी के आरापों की जांच कराई थी?