कल सुबह 7 बजे मैं 46 साल का हो जाउंगा। इन
वर्षों में जब से मुझमें ‘समथिंग डिफरेंट’ का भाव प्रबल हुआ है, तब से मैंने जन्मदिन नितांत निजी
क्षणों में जीते हुए ही मनाया है। यानी यह दिन किसी के साथ नहीं मनाया। इस बार
लगता है मैं यह दिन सबके साथ मनाऊं।
पिछला एक साल मेरी जिंदगी में क्रांतिकारी
वैचारिक परिवर्तन का रहा। प्रखर समाजवादी विचारक व लोहियाजी के निकटस्थ पं.
अध्यात्म त्रिपाठी पर पुस्तक ‘समाजवादी अध्यात्म
त्रिपाठीः कुछ संस्मरण’ के प्रकाशन की
सफलता के बाद परिवर्तन की प्रक्रिया दिखनी शुरू हो गयी। इसमें मेरे लिए सबसे बड़ा
परिवर्तन था, सद्चरित्र की दृढ़ता का अध्ययन। खैर, इसी दौर में अध्यात्म के गूढ़ ज्ञान की ओर
झुकाव बढ़ा। खुशी इस बात की होती है कि जहां-जहां जिस प्रकार के ज्ञान की जरूरत हो रही है, वह
स्वमेव उपलब्ध होता जा रहा है। मगर कभी-कभी खीज इस बात की होती है कि जिन्दगी के इतने
साल सिर्फ नींव मजबूत होने में ही निकल गए। इन सालों में सिर्फ जिज्ञासा की नींव
ही पक्की हुई। उस पर इमारत बननी तो दूर मुझे एक ईंट भी नजर नहीं आ रही है।
पत्रकारिता में खुद को तुर्रमखां समझने के बाद
अब जब किसी विषय पर चिंतन करता हूं तो पता चलता है मुझे तो सिर्फ सतही ज्ञान था।
या फिर पत्रकारिता के लिए जरूरी जानकारी ही मेरे पास थी।
खैर, हर परिवर्तन को एक प्रक्रिया से गुजरना
पड़ता है। दरअसल, परिवर्तन जैसा कुछ होता नहीं है। जिंदगी में वे परिवर्तन भी, जो
इन आंखों से देखे नहीं जा सकते, सिर्फ महसूस किए जा सकते हैं, एक प्रक्रिया के तहत
होते हैं। इसलिए किसी काल विशेष में परिवर्तन होने की बात कहना गलत है। लेकिन कुछ
समय ऐसे होते हैं जब वे दिखने लगते हैं। पिछले एक साल में परिवर्तन की इस
प्रक्रिया का प्रभाव दिखने लगा।
अब तक के जीवन के ४६ वर्षों में हुई हर घटना,
अच्छी हो या बुरी, विवेकी हो या अविवेकी, उचित हो या अनुचित सभी के लिए मैं आज
स्वयं को भाग्यशाली समझ रहा हूं। प्रकृति के, ईश्वर के इस खेल के प्रति कृतज्ञता
महसूस कर रहा हूं। क्योंकि अब समझ में आ रहा है कि ये समूची घटनाएं, दृष्टांत एक
प्रक्रिया के अंग थे जो उस परिवर्तन के थे, जिसका साक्षात्कार का आज मैं कर रहा
हूं और भविष्य में करुंगा।
इसलिए अब मैं जन्मदिन आप सभी के बांट रहा हूं।
इसलिए क्योंकि गत एक वर्ष ने मेरे जीवन में अच्छे-बुरे अनुभवों, ज्ञान, इंद्रीय
भोगों के जरिये मुझे वैचारिक, शारीरिक संतुलन के ज्यादा निकट लाया है। यही
प्रक्रिया प्रकृति में भी होती है। कुछ दिखती हैं, कुछ नहीं दिखती हैं। जो हमें
नहीं दिखती हैं, वे उन्हें दिखती हैं, जिनके पास उन्हें देखने की जिज्ञासा होती
है। प्रकृति के संतुलन के चक्र ने मुझे सिखाया है कि जीवन में अच्छी और बुरी हर
घटना का स्वागत करना चाहिए, तभी संतुलन का पाठ पढ़ा जा सकेगा। और संतुलन की
प्रकृति का उद्देश्य है इसीलिए परिवर्तन को प्रकृति की नियति माना गया है। मेरे अराध्य दादाजी, गुरु तत्व में स्थिर मेरे दादा सदा इसी प्रकार मेरा मार्ग प्रशस्त करते रहेंगे, इसका मुझे पूरा विश्वास है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें