आज फेसबुक में लॉग-इन करते ही मुझे बड़े भाई श्री संजय अरोरा का यह पोस्ट पढ़ने को मिला- न तेरा चाचा, न तेरा मामा, तू क्यों खुश हो रहा है जो जीता ओबामा।
मैंने इस पोस्ट पर दो कमेंट किये-
पहला था-
क्योंकि अमेरिका से मैं बेइंतहाँ प्यार करता हूं। मेरी रग-रग में उसके एहसानों का लहु प्रवाहित है। मैंने जन्म भले ही अपनी माँ (भारत) की कोख से लिया लेकिन मेरी शिक्षा-दीक्षा, मेरा रहन-सहन, मेरा व्यवसाय, मेरी आजीविका सब कुछ अमेरिका के रहमोकरम पर हुआ। आज मैं उसका यशोगान करके उसके उपकार का कर्ज चुकाने का प्रयास कर रहा हूं। भले ही मेरी आने पीढ़ी के लिए यह उपकार का भाव गुलामी में तब्दील हो जाए, मुझे क्या। तब तक मैं अपनी जिंदगी जी चुका होउंगा।
और दूसरा था-
सर ऐसे पोस्ट मत किया कीजिए। लगने लगता है कि किसी ने सेंट्रल जेल के अंडा सेल में कैद कर दिया है। अगर बीपी-शुगर-स्ट्रेस हो गया तो इलाज का पैसा आपको ही देना होगा।
मुझे श्री संजय अरोरा जी का यह पोस्ट पढ़कर पहले तो आश्चर्य हुआ, फिर समझ में आ गया कि देश की वर्तमान दशा-दिशा किस ओर जा रही है। आपको संजय जी के विषय में बता दूँ। हैं तो एक अदद एडवर्टाइजिंग कंपनी के संचालक, जिसका मुख्यालय (हेड क्वार्टर) नागपुर में है। इनमें क्रियेटिविटी कूट-कूट कर भरी हुई है। शेल्स एडवर्टाइजिंग है इनकी कंपनी का नाम। मुझे याद है लगभग १५ साल पहले जब नागपुर में विज्ञापन एजेंसी की दुनिया संकीर्ण और परचून-किराना की दुकान जैसी हुआ करती थी, श्री संजय अरोरा ने इसे महानगरों और विज्ञापन के वैश्विक चलन का मतलब बताया था। खैर, परचून की दुकान वाली मानसिकता में तो काफी मंथर गति से बदलाव आया लेकिन तब तक शेल्स एडवर्टाइजिंग का काम महानगर मुंबई होता हुआ दुबई जा पहुंचा और यह अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों के साथ प्रतिस्पर्धा में जमे हैं। तो ये हैं श्री संजय अरोरा- प्रबंधन (मैनेजमेंट) की बीरीकियों को नागपुर से पूरे देश में प्रसारित करने वाले संतरा नगरी के नारंगी मैनेजमेंट गुरु।
अब ओबामा के मुद्दे पर आते हैं। पोस्ट और कमेंट के बाद मुझे लगा कि इस विषय पर जरा गंभीरता से विचार रख दिया जाए तो अपने ब्लाग पर आ गया।
अमेरिका ने भारतीय जनमानस को बौद्धिक रूप से दिवालिया करने का कुचक्र काफी पहले से शुरू कर दिया था। इसका असर दिखा जब सन १९६२ में चीन से भारत का युद्ध हुआ। इस समय अपना सबसे हितैषी बन कर अमेरिका ही उभरा था। उसका ऋण चुकाने के चक्कर में अब देश के हर संसाधन पर अमेरिका का कब्जा हो चुका है। रिटेल में एफडीआई भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है। कल किसी ने पूछा था कि ओबामा जीतेंगे या नहीं। मैंने उनसे उल्टा सवाल किया कि हमारे देश का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा। अमेरिका का प्रेसिडेंट, अमेरिका का सैंडी। पोस्ट पर ही किसी ने मुझ पर कमेंट किया कि आप अपनी सोच की संकीर्णता से बाहर निकलिये। तो मैंने हंस कर टाल दिया कि जाने दीजिए बहस लंबी खिंच जाएगी। ये सभी युवा वर्ग के लोग हैं। इस वाकये का भी जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि हमारे देश को पूरी तरह घेरने की साजिश ने अब तेजी से अमली जामा पहनना शुरू कर दिया है।
वर्ल्ड बैंक, विश्व स्वास्थ्य संगठनों के माध्यम से अमेरिका ने हमें यह सोचने का मौका ही नहीं दिया कि हमारे पास क्या है। अपने लुभावने आवरण के साथ उसने हमें मजबूर किया कि हम वही सोचें जो वह चाहता है। हम वही करें जो वह चाहता है। यहाँ तक कि हम वही खाएं जो वह चाहता है।
इस काम में उसकी मदद की देश के उनक १ फीसदी मुट्ठीभर अभिजात्य वर्ग के लोगों ने, जो अपनी चौधराहट इस देश में जमाए रखना चाहते हैं। मीडिया, उद्योग, व्यवसाय, राजनीति, इकोनामी के बाद अब यह हमारे देश की खेती पर कब्जा करने की ओर अग्रसर है। ईस्ट इंडिया कंपनी तो हमारी बौद्धिक संपदा पर कब्जा नहीं कर पाई (हां, उसने १ फीसदी ऐसे लोग जरूर तैयार कर दिये जो अब तक हमें संचालित कर रहे हैं), लेकिन अमेरिका ने कब्जे की शुरुआत ही यहीं से की। आज ओबामा और सैंडी की चिंता इसी बौद्धिक दीवालियापन की निशानी है।
ब्रिटिश साम्राज्य के खात्मे के बाद अमेरिका अब यहाँ पूंजीवादी साम्राज्य फैलाना चाहता है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद की असफलता के पूरे गुणा-भाग अमेरिका ने कर लिये हैं। अबकी गुलामी बहुत घातक होगी। इससे कई हजार साल तक मुक्ति नहीं मिल सकेगी।
फोटो साभार- lahorerealestate.com
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