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शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

लोकपाल संबंधी सिफारिश

राज्यसभा की प्रवर समिति की सिफारिशों पर सदन और सरकार का क्या रुख होगा तथा अंतत: लोकपाल विधेयक का क्या स्वरूप सामने आयेगा—यह तो समय ही बतायेगा, लेकिन ये सिफारिशें विभिन्न मतों के बीच सहमति के बिंदु अवश्य सुझाती हैं। प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखने-न रखने पर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच तीव्र मतभेद रहे हैं। दिलचस्प यह भी है कि भूमिकाओं के मुताबिक राजनीतिक दल इस बाबत अपनी राय बदलते रहे हैं। इसलिए इस मुद्दे पर सहमति आसान नहीं है, पर राज्यसभा की प्रवर समिति ने एक मध्यमार्ग सुझाया है। मीडिया में आयी खबरों के मुताबिक समिति ने सिफारिश की है कि बाहरी एवं आंतरिक सुरक्षा, परमाणु ऊर्जा तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों सरीखे संवेदनशील मामलों को बाहर रखते हुए प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए। यह सिफारिश इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सत्तापक्ष ऐसे ही संवेदनशील मामलों का तर्क दे कर प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने पर जोर देता रहा है। अगर प्रवर समिति की सिफारिश के अनुरूप इस मुद्दे पर सभी पक्षों में सहमति बन जाती है तो सशक्त लोकपाल की दिशा में एक बड़ी सफलता होगी। इसमें दो राय नहीं कि जवाबदेही और पारदर्शिता का तकाजा है कि हर किसी को जिम्मेदारी अैार जवाबदेही के दायरे में होना चाहिए। यही कारण है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने पर आपत्ति सिर्फ विपक्ष को ही नहीं, अन्ना हजारे समेत सिविल सोसायटी को भी रही है। नहीं भूलना चाहिए कि चार दशकों से भी ज्यादा समय से राजनीतिक गलियारों में भटके लोकपाल को अगर अब राह मिलती नजर आ रही है तो उसका श्रेय अन्ना हजारे के जनलोकपाल आंदोलन को ही जाता है।
पिछले साल जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक सरकार को हिला देने वाले अन्ना के इस आंदोलन का ही परिणाम था कि दिसंबर, 2011 में संसद के शीतकालीन सत्र के अंतिम दिनों में, सरकार की पसंद का ही सही, लोकपाल विधेयक संसद में पेश किया गया। लोकसभा में सत्तारूढ़ संप्रग का बहुमत है, इसलिए विपक्ष के भारी विरोध के बावजूद वहां लोकपाल विधेयक पारित हो गया, लेकिन राज्यसभा लंबी चर्चा के बाद आधी रात को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गयी। बाद में लोकपाल विधेयक राज्यसभा की प्रवर समिति को भेज दिया गया। उसी प्रवर समिति ने अब अपनी सिफारिशों में कुछ ऐसे बिंदु सुझाये हैं, जिनसे लोकपाल पर अलग-अलग राय रखने वाले पक्षों में सहमति बन सकती है। विवाद का एक बड़ा मुद्दा लोकपाल विधेयक में ही राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति का प्रावधान किया जाना भी है। ध्यान रहे कि अन्ना हजारे की मांग रही है कि लोकपाल विधेयक में ही यह प्रावधान किया जाये कि उसी की तर्ज पर राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति की जायेगी। यह एक ऐसा मुद्दा रहा है, जिस पर अन्ना के समर्थक समझे जाने वाले राजनीतिक दल भी उनके साथ सहमत नहीं हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ संप्रग के भी कुछ घटक दल इस प्रावधान के विरोध में मुखर रहे हैं। इस विरोध का मुख्य तर्क यही है कि लोकायुक्त की नियुक्ति राज्य के अधिकार क्षेत्र का मामला है, इसलिए ऐसा कोई भी प्रावधान देश के संघीय ढांचे और संविधान की भावना के प्रतिकूल होगा।
विवाद का एक और बड़ा मुद्दा सीबीआई की स्वायत्तता का रहा है। अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए देश की प्रमुख जांच एजेंसी सीबीआई के दुरुपयोग के आरोपों से घिरी होने के बावजूद केंद्र सरकार उसे स्वायत्तता देने को तैयार नहीं है। बेशक सीबीआई के राजनीतिक दुरुपयोग के मुद्दे पर भी राजनीतिक दलों के तेवर अपनी भूमिकाओं के साथ बदलते रहे हैं। विपक्ष में आते ही हर दल को सीबीआई के राजनीतिक दुरुपयेाग की चिंता सताने लगती है। इसके बावजूद केंद्र सरकार ने सीबीआई पर अपना नियंत्रण कायम रखने के लिए अनेक तर्क दिये, पर उनका खोखलापन इसी से उजागर हो जाता है कि तटस्थ प्रेक्षकों के गले भी वे तर्क नहीं उतरे। प्रवर समिति ने इस जटिल एवं संवेदनशील मुद्दे पर भी सहमति का मार्ग सुझाया है। मसलन, सीबीआई निदेशक की नियुक्ति को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के लिए समिति ने सिफारिश की है कि यह काम प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और देश के मुख्य न्यायाधीश की तीन सदस्यीय समिति द्वारा किया जाना चाहिए। साथ ही सीबीआई निदेशक का कार्यकाल भी निश्चित होना चाहिए। इसके अलावा समिति की यह सिफारिश भी बेहद महत्वपूर्ण है कि सीबीआई की अभियोजन शाखा का प्रमुख सरकार के बजाय सीबीआई निदेशक के अधीन होगा। अन्ना हजारे की मांग थी कि सीबीआई को लोकपाल के अधीन किया जाये, पर समिति ने यह सिफारिश अवश्य की है कि लोकपाल जो मामले जांच के लिए सीबीआई को भेजेगा, उनकी निगरानी भी खुद कर सकेगा। जरूरत के मुताबिक सीबीआई निजी वकील भी नियुक्त कर सकेगी, पर उसके लिए उसे लोकपाल की मंजूरी लेनी होगी। प्रवर समिति की इन सिफारिशों के बावजूद कुछ बिंदुओं पर कुछ पक्ष असहमत हो सकते हैं, लेकिन लोकतंत्र में आम सहमति से ही फैसले किये जाने चाहिए, जिसके लिए मध्यमार्ग सुझाने का काम इस समिति ने बखूबी कर दिया है।
- दैनिक ट्रिब्यून से साभार

गुरुवार, 15 नवंबर 2012

समाजवादी अध्यात्म के रंग


पंडित अध्यात्म त्रिपाठी 20 वर्षों तक डाक्टर राममनोहर लोहिया के विश्वस्त सहयोगी रहे। डाक्टर लोहिया के अंतरंग होने के कारण उस जमाने में के लोगों के लिये आदरणीय थे। अध्यात्म जी के लिए सम्मान इसलिए भी था, क्योंकि उनके व्यक्तित्व में वे सभी बातें मौजूद थीं, जो कमोबेश किसी गुरु से शिष्य को मिलती हैं। अर्थात गुरु तुल्य लोहिया जी का गहरा असर उनके व्यक्तित्व में था। अध्यात्म जी का सम्पूर्ण जीवन डाक्टर लोहिया के समाजवादी आन्दोलन को समर्पित रहा। यही कारण था- उनका व्यक्तित्व विपुल था, बहुआयामी था।

साहित्यकार हों, विचारक-चिंतक हों, या राजनीतिक और या फिर शोषित वर्ग का कोई व्यक्ति, अध्यात्म जी से उनके मधुर रिश्ते होना आश्चर्य की बात नहीं थी। सन् 1980 के बाद देश की वैचारिक पृष्ठभूमि में तेजी से बदलाव आया। सिद्धांतों की बात करने वालों से किनारा किया जाने लगा। राजनीति, पत्रकारिता में मिशनरी भावना का स्थान धनलोलुपता और स्वार्थ ने ले लिया। इसके बावजूद 15 मार्च 1988 को जीवन के अंतिम दिनों तक उन्होंने सार्वजनिक जीवन के उन सिद्धांतों को जीवित रखा जिनकी वकालत 1967 तक डाक्टर राममनोहर लोहिया करते रहे।

अध्यात्म जी का सम्पूर्ण जीवन चार प्रमुख वैचारिक खंडों में विभक्त रहा- डाक्टर लोहिया के जीवित रहते हुए उनके कार्यक्रमों, आन्दोलनों में सहभागिता, डाक्टर लोहिया की मृत्यु के उपरांत उनके कार्यक्रमों और आन्दोलनों का नेपथ्य में रहकर संचालन, डाक्टर राममनोहर लोहिया समता विद्यालय न्यास के कार्य (हैदराबाद के बदरीविशाल पित्ती जी के अभिभावकत्व में लोहिया साहित्य का संपादन, प्रकाशन व प्रचार-प्रसार) तथा कद्दावर नेता हेमवतीनंदन बहुगुणा जी के साथ सच्चे समाजवाद की स्थापना का आशावाद। लोहिया जी की सप्तक्रान्ति को भी अध्यात्म जी ने अपने चरित्र में पूर्णतः आत्मसात कर लिया था। प्रस्तुत पुस्तक ‘समाजवादी अध्यात्म’ में अध्यात्म जी के जीवन के विभिन्न रंगों को सामने लाने का प्रयास किया गया है। एक प्रयास है इस पुण्यात्मा को श्रद्धांजलि प्रदान करने का, वह सम्मान प्रदान करने का जिसके वे हकदार थे।

सोमवार, 12 नवंबर 2012

दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं।


दीपावली में दीपों की श्रृंखला से रोशन गली-मोहल्ले, घर। चेतन के सर्वोच्च चेतन की सत्ता का सफर इन्हीं दीपों के मानिन्द हमारे मार्ग को रोशनी से प्रशस्त रखे। हमारे चेतन में, अंतः में, हमारी आत्मा में कहीं भी अंधकार ना रहे।
रोशनी भी कैसी हो... माटी के बने दीपों में तेल के दियों की जो हमें प्रकृति के समीप लाते हैं। हमें अपने वास्तविक घर (परम पिता का घर) की याद दिलाते हैं। ये सहज हैं, सरल हैं क्योंकि इन्हें कुम्हार सहजता और सरलता से बनाता है। हम इनमें तेल-बाती लगाकर सहजता और सरलता से प्रज्ज्वलित करते हैं। यह कीट-पतंगों को अपने पास बुला लेता है और हमें परेशानी से बचाता है। यही है प्रकृति और उसका चक्र।
पूरा मार्ग इन्हीं दीपों की श्रृंखला से दैदीप्यमान रहे। हमारे अंतः का अंधकार मिटाए। हमें प्रकृति पुत्र होने का अस्तित्वबोध कराते रहे। तमोगुणी विचारों से हमारी रक्षा करे। हमें सकारात्मक विचारों से ओत-प्रोत रखे। हमारा सफर उसी सरलता से पूर्णता की ओर ले जाए जिस सरलता के साथ दीप अपनी भूमिका का निर्वाह करता है। तम से उजाले का सफर चलता रहे। चरैवेति-चरैवेति...।
दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं।

बुधवार, 7 नवंबर 2012

न तेरा चाचा-न तेरा मामा, तू क्यों खुश हो रहा जो जीता ओबामा!





आज फेसबुक में लॉग-इन करते ही मुझे बड़े भाई श्री संजय अरोरा का यह पोस्ट पढ़ने को मिला- न तेरा चाचा, न तेरा मामा, तू क्यों खुश हो रहा है जो जीता ओबामा।
मैंने इस पोस्ट पर दो कमेंट किये-
पहला था-
क्योंकि अमेरिका से मैं बेइंतहाँ प्यार करता हूं। मेरी रग-रग में उसके एहसानों का लहु प्रवाहित है। मैंने जन्म भले ही अपनी माँ (भारत) की कोख से लिया लेकिन मेरी शिक्षा-दीक्षा, मेरा रहन-सहन, मेरा व्यवसाय, मेरी आजीविका सब कुछ अमेरिका के रहमोकरम पर हुआ। आज मैं उसका यशोगान करके उसके उपकार का कर्ज चुकाने का प्रयास कर रहा हूं। भले ही मेरी आने पीढ़ी के लिए यह उपकार का भाव गुलामी में तब्दील हो जाए, मुझे क्या। तब तक मैं अपनी जिंदगी जी चुका होउंगा।


और दूसरा था-
सर ऐसे पोस्ट मत किया कीजिए। लगने लगता है कि किसी ने सेंट्रल जेल के अंडा सेल में कैद कर दिया है। अगर बीपी-शुगर-स्ट्रेस हो गया तो इलाज का पैसा आपको ही देना होगा।
मुझे श्री संजय अरोरा जी का यह पोस्ट पढ़कर पहले तो आश्चर्य हुआ, फिर समझ में आ गया कि देश की वर्तमान दशा-दिशा किस ओर जा रही है। आपको संजय जी के विषय में बता दूँ। हैं तो एक अदद एडवर्टाइजिंग कंपनी के संचालक, जिसका मुख्यालय (हेड क्वार्टर) नागपुर में है। इनमें क्रियेटिविटी कूट-कूट कर भरी हुई है। शेल्स एडवर्टाइजिंग है इनकी कंपनी का नाम। मुझे याद है लगभग १५ साल पहले जब नागपुर में विज्ञापन एजेंसी की दुनिया संकीर्ण और परचून-किराना की दुकान जैसी हुआ करती थी, श्री संजय अरोरा ने इसे महानगरों और विज्ञापन के वैश्विक चलन का मतलब बताया था। खैर, परचून की दुकान वाली मानसिकता में तो काफी मंथर गति से बदलाव आया लेकिन तब तक शेल्स एडवर्टाइजिंग का काम महानगर मुंबई होता हुआ दुबई जा पहुंचा और यह अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों के साथ प्रतिस्पर्धा में जमे हैं। तो ये हैं श्री संजय अरोरा- प्रबंधन (मैनेजमेंट) की बीरीकियों को नागपुर से पूरे देश में प्रसारित करने वाले संतरा नगरी के नारंगी मैनेजमेंट गुरु।
अब ओबामा के मुद्दे पर आते हैं। पोस्ट और कमेंट के बाद मुझे लगा कि इस विषय पर जरा गंभीरता से विचार रख दिया जाए तो अपने ब्लाग पर आ गया।
अमेरिका ने भारतीय जनमानस को बौद्धिक रूप से दिवालिया करने का कुचक्र काफी पहले से शुरू कर दिया था। इसका असर दिखा जब सन १९६२ में चीन से भारत का युद्ध हुआ। इस समय अपना सबसे हितैषी बन कर अमेरिका ही उभरा था। उसका ऋण चुकाने के चक्कर में अब देश के हर संसाधन पर अमेरिका का कब्जा हो चुका है। रिटेल में एफडीआई भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है। कल किसी ने पूछा था कि ओबामा जीतेंगे या नहीं। मैंने उनसे उल्टा सवाल किया कि हमारे देश का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा। अमेरिका का प्रेसिडेंट, अमेरिका का सैंडी। पोस्ट पर ही किसी ने मुझ पर कमेंट किया कि आप अपनी सोच की संकीर्णता से बाहर निकलिये। तो मैंने हंस कर टाल दिया कि जाने दीजिए बहस लंबी खिंच जाएगी। ये सभी युवा वर्ग के लोग हैं। इस वाकये का भी जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि हमारे देश को पूरी तरह घेरने की साजिश ने अब तेजी से अमली जामा पहनना शुरू कर दिया है।
वर्ल्ड बैंक, विश्व स्वास्थ्य संगठनों के माध्यम से अमेरिका ने हमें यह सोचने का मौका ही नहीं दिया कि हमारे पास क्या है। अपने लुभावने आवरण के साथ उसने हमें मजबूर किया कि हम वही सोचें जो वह चाहता है। हम वही करें जो वह चाहता है। यहाँ तक कि हम वही खाएं जो वह चाहता है।
इस काम में उसकी मदद की देश के उनक १ फीसदी मुट्ठीभर अभिजात्य वर्ग के लोगों ने, जो अपनी चौधराहट इस देश में जमाए रखना चाहते हैं। मीडिया, उद्योग, व्यवसाय, राजनीति, इकोनामी के बाद अब यह हमारे देश की खेती पर कब्जा करने की ओर अग्रसर है। ईस्ट इंडिया कंपनी तो हमारी बौद्धिक संपदा पर कब्जा नहीं कर पाई (हां, उसने १ फीसदी ऐसे लोग जरूर तैयार कर दिये जो अब तक हमें संचालित कर रहे हैं), लेकिन अमेरिका ने कब्जे की शुरुआत ही यहीं से की। आज ओबामा और सैंडी की चिंता इसी बौद्धिक दीवालियापन की निशानी है।
ब्रिटिश साम्राज्य के खात्मे के बाद अमेरिका अब यहाँ पूंजीवादी साम्राज्य फैलाना चाहता है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद की असफलता के पूरे गुणा-भाग अमेरिका ने कर लिये हैं। अबकी गुलामी बहुत घातक होगी। इससे कई हजार साल तक मुक्ति नहीं मिल सकेगी। 
फोटो साभार- lahorerealestate.com

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

आध्यात्मिकता और ब्रह्मचर्य



- ब्रह्मचारी प्रह्लादानान्द

यम के अंतर्गत ब्रह्मचर्य अपने आपमें सब कुछ समाये हुए है | सबसे पहले इसको समझने की बात है | इसके सम्बन्ध में विश्व भर में कई प्रकार की भ्रांतियां फैली हुई हैं | सारे योग का आधार इसी एक चीज पर टिका है| इसलिए इसको बहुत सूक्ष्मता एवं गहनता से समझना होगा | क्यूंकि यह आत्म को ब्रह्म बना देता है | यानी सामान्य से सामान्य व्यक्ति को भी भगवान बना देता है | पुरुष को भी पुरुषोत्तम बना देता है | शरीर के स्वास्थ्य से लेकर कर और आत्म के चैतन्य तक इसी का बोलवाला है | यह शरीर एवं चेतना को एक रखता है | इसके अभाव में शारीर अलग और चेतना अलग से प्रतीत होने लगते हैं और चेतना को शारीर बोझ लगने लगता है | इसलिए योग के साधक की चर्या ब्रह्म के जैसे होनी चाहिए |
अपनी शक्ति को संभाल कर रखने के लिए जो भी विधि कार्य करते हैं उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं | अब वह चाहे ब्रह्मचर्य हो, सलेबेसी हो या और भी कोई नाम हो | बात है कि शरीर की जो शक्ति है वह किसी तरह संभल जाये | उसी शारीर की शक्ति को सँभालने के लिए यह सब ढेर सारी विधियाँ हैं | और सभी विधियों का एक ही ध्येय है कि जो शक्ति शारीर में हमने अर्जित की है उसको किस प्रकार से बचा कर रखें | क्यूंकि इस शक्ति के बिना हम अध्यात्म तो क्या किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हैं | कोई भी क्षेत्र हो जीवन का हर क्षेत्र में मेहनत करनी होती है और मेहनत करने के लिए शक्ति चाहिए | पहले के समय में शक्ति अधिक थी तो लोग उस अनुसार मेहनत करते थे | अब शक्ति कम है तो मशीनों से मेहनत करवाते हैं | मशीन भी तो शक्ति से चलती है | इस शक्ति के बल पर वह निखर कर आता है | जैसे अगर प्रिंटर में इंक बराबर है तो प्रिंट ठीक आएगा नहीं तो धुंधला आएगा | उसी प्रकार यदि व्यक्ति में शक्ति है तो उसके हर काम नंबर १ के होंगे | अगर वह अध्यातम की साधना के लिए योग, ध्यान आदि करता है तो उसमे करने में उसे और आनंद मिलेगा | और अगर शक्ती कम है तो आलसी बन कर मेहनत से जी चुराएगा | मेहनत तो सब में करनी पड़ती हैं चाहे वह सांसारिक कार्यों के लिए या फिर आध्यत्मिक कार्यों के लिए |
क्या वाल्मीकि ने बिना ब्रह्मचर्य के ऋषि बने थे ? क्या भीष्म पितामह बिना ब्रह्मचर्य के इच्छा मृत्यु का वरदान पा गए ? हिटलर ने भी तो शादी नहीं की और एक अदना सा आदमी दुनिया को हिला गया | दारा सिंह क्या बिना ब्रह्मचर्य के इतने बड़े पहलवान बने ? स्वामी रामदेव जी एक छोटे से किसान के बेटे ब्रह्मचर्य के बल पर ही तो इतना आगे बड़े हैं | महऋषि महेश योगी भी तो ब्रह्मचर्य के बल पर ही आगे बड़े | जिसको भी सफलता चाहिए आध्यात्म में उसे ब्रह्मचर्य का पालन तो अति आवश्यक रूप से करना पड़ेगा | क्यूंकि योग सूत्र के यम में ब्रह्मचर्य पहले ही आ जाता है | यही तो आधार हैं आध्यात्मिक उन्नति का | ओशो रजनीश, स्वामी राम तीर्थ, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, तुलसीदास यह सब साधारण लोग थे किन्तु ब्रह्मचर्य के बल पर आध्यात्मिकता में कितने ऊपर गए यह सारा जगत जानता है | ब्रह्मचर्य के पालन की बात नहीं होती तो कितने ही इस आध्यात्म में सफल हो जाते | किन्तु केवल मात्र ब्रह्मचर्य के आभाव में वह सफलता से वंचित रह गए | आध्यात्मिकता में केवल एक बात चलती है वह है ब्रह्मचर्य | यहाँ पर अच्छे विचार-बुरे विचार इनका कोई महत्व नहीं है | महत्व केवल ब्रह्मचर्य का है | बिना ब्रह्मचर्य के कोई भी विचार या कोई भी काम चाहे वह कितना ही अच्छा हो उन्नति प्राप्त नहीं करता है | ब्रह्मचर्य वह है की इसका आनंद वही ले सकता है जो इसका पालन करता है | इसका आनंद दूसरा नहीं ले सकता है | इसलिए कोई भी आध्यात्मिक साधना हो उसमे ब्रह्मचर्य को प्रधानता है | साधू, योगी, संन्यासी, वैरागी, उदासी, पादरी, सूफी, दरवेश, लामा, भिक्षु, जैन मुनि, इसाई संन्यासी, तिब्बती लामा, शओलिन मोंक, और भी कोई भी आध्यामिकता वाले हैं वह सबसे पहले ब्रह्मचर्य के पालन पर बल देते हैं | और जहाँ पर ब्रह्मचर्य ख़त्म हो जाता है तो उसका बुरा पतन होता है चाहे वह कितन ही ऊँचा गया हो वह बुरी तरह नीचे गिरता है | जैसे विश्वामित्र का पतन हुआ |  बिना ब्रह्मचर्य के आध्यामिकता में सफलता पाना तो कभी नहीं हो सकता है |

अपने आप आ जाता है ब्रह्मचर्य 

मेरे अनुसार जिसको भी आध्यात्मिकता में जाना है, उसे ब्रह्मचर्य को अपनाना नहीं पड़ता है, वह ब्रह्मचर्य तो अपने आप आता है, जैसे आप गाडी में बैठो तो गाडी अपने आप आपको ले जाती है, जैसे आग पर कोई वस्तु रखो तो पक जाती है, जैसे दवाई अपना काम कर जाती है, आपको कुछ नहीं करना पड़ता है, तो ऐसी ही आध्यात्मिकता में जब कोई जाता है तो ब्रह्मचर्य अपने आप आ जाता है, क्यूंकि उसको आध्यात्मिकता के रास्ते में रौशनी करने के लिए ब्रह्मचर्य की जरूरत होती है, यह रौशनी कैसे आती है ? सवाल यह है ? यह ओज जो आध्यात्मिकता में आता है यह सवाल है ? तो इसका उत्तर आपको दूंगा | जो भी लोग एक बार आध्यात्मिकता में ब्रह्मचर्य का महत्त्व समझ जाते हैं, तो फिर वह यही करता है की इसको कैसे बचाया जाए | अब वह क्या है जो वह समझ जाता है ? तो वह यह है की, जिस प्राकृतिक प्रक्रिया में वह अपना खज़ाना लुटाता है, उस प्राकृतिक प्रक्रिया से वह दूर भागता है, यह है ब्रह्मचर्य, यानी ब्रह्म की चर्या |
अब यह खज़ाना क्या है ? तो इस छोटी-सी प्रक्रिया में जो अरबों आत्माएं हम बहा देते हैं, उन आत्माओं को अगर हम अपने में रखें तो हम कितना प्रकाशवान हो जायेंगे, यह ऐसे है की आत्मा ही प्रकशवान होती है, किन्तु उसका प्रकाश हमको पता नहीं चलता है, किन्तु जब वही आत्मा एक शरीर धारण करती है और अपने अन्दर की आत्माओं को बचाकर रखती है तो उससे उसे प्रकाश मिलता है, जैसे कैंसर का कीटाणु दीखता नहीं हैं, लेकिन उसमे भी तो आत्मा है, वह कितना बलवान है, की आपकी आत्मा को शरीर से हटाकर खुद उस शरीर पर कब्ज़ा कर लेता है, इसी तरह से जो आत्माएं हम शरीर से बाहर निकाल देते हैं, अगर उसको हम अपने शरीर में इकठ्ठा रखें तो वह जो प्रकाश करेंगे, जो ओज उनसे निकलेगा वही ओज तो आध्यात्मिकता है, जैसे एक जुगुनू के प्रकाश से कुछ नहीं होता है, किन्तु जब बहुत से जुगनुओं को एक जगह रख दो तो तो प्रकाश निकलता है, वह एक अलग का अहसास देता है, एक अलग सा अपना पन देता है, बस यही आध्यात्मिकता में ब्रह्मचर्य का उपयोग होता है, जैसे गाडी में पेट्रोल का उपयोग होता है, बिना पेट्रोल के गाडी नहीं चल सकती है, उसी तरह बिना ब्रह्मचर्य के आध्यात्मिकता सफल नहीं हो सकती है, आध्यात्मिकता में उस को पृथ्वी से जल से अग्नि से वायु से आकाश बनाया जाता है, जैसे मिटटी से आनाज से रोटी से भोजन से खून से रोशनी से प्राण से आत्मा से परमात्मा बनाया जाता है,
अब इसको आजकल के हिसाब से समझाता हूँ, आजकल की भाषा में इसे सेलेबेसी कहते हैं, जब शरीर में सेल बेसी यानी ज्यादा हो जाते हैं उसे सेले बेसी कहते हैं, Cell , जब हमारे शरीर में सेलों की मात्र ज्यादा हो जाती है तो उसे सेलेबेसी कहते हैं, अब सेल की मात्र कैसे होगी ज्यादा शरीर में और किसके होगी ? जो भी सेलेबेसी को अपनाएगा उसके शरीर में सेल की मात्र ज्यादा होगी, और जो सेल हैं उसके शरीर में वही तो उसकी फिर दूसरों से अलग करेंगे, उसको उन्नति दिलाएंगे, तो जो सेलेबेसी का पालन करने वाले ही तो फिर सेलेब्रेटी बनते हैं, और सेलेब्रेटी जो होते हैं, उन्होंने सेल को बढाने ब्रत लिया है, यानी जो अपने सेलों को बढाने के लिए ब्रत लेते हैं वही सेलेब्रेटी होते हैं, और दूसरा से समझाता हूँ जो सेल का उपयोग हम रेडिओ, घडी आदि चलाने में करते हैं तो उसे भी तो सेल ही कहते हैं, यानी उसमे भी उर्जा भरी है, अगर आप वह सेल तो तोड़कर उसकी उर्जा को समाप्त कर देंगे तो फिर कैसे टोर्च जलेगी, तो ऐसे ही इस शरीर की टोर्च को जलाने के लिए सेल की जरूरत होती है, और सेल को बेटरी भी कहा जाता है, जो की ब्रती का ही अपभ्रंश है, यानी जो सेल को सुरक्षित रखने और बढाने का ब्रत लेता है | तभी तो कोई भी व्रत को करने का संकल्प लेता है तो उसे सेलेब्रती कहते हैं, तो यह है ब्रह्मचर्य, सेलेबेसी |
यहाँ पर बात हो रही है आध्यात्मिकता में किस तरह से ब्रह्मचर्य मदद करता है, उसका सारा उल्लेख किया है मैंने, यानी जब किसी को आध्यात्मिकता में जाना है तो उसको और अधिक उर्जा की आवश्यकता होगी, तो उसको वह उर्जा ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त होगी, जैसे एक नदी के पानी को रोककर डैम बनाया, फिर उस डैम का पानी नहर से खेतों में पहुँचाया, या फिर उस डैम के पानी से बिजली उत्पन्न की, तो उस बिजली को उत्पन्न करने के लिए, बहुत अधिक पानी की जरूरत होगी, और अगर पानी कम होगा तो फिर बिजली नहीं उत्पन्न हो सकती है, तो इसी तरह से जब कोई आध्यात्मिकता में जाता है, तो पतंजलि सूत्र के आष्टांग योग में पहला सोपान है यम उस यम में ब्रह्मचर्य भी है, मैं यहाँ पर प्रजजन के प्राकृतिक नियम के विरुद्ध नहीं बोल रहा हूँ, मैं यहाँ पर आध्यात्मिकता के पक्ष में बोल रहा हूँ, तो ऐसी ही एक डैम हमारे शरीर में है जिसे कुंडलिनी कहा जाता है, कुंडलिनी से तात्पर्य है कुण्ड लीनी यानी कुण्ड से लेना, अब जो कुण्ड हमारे अन्दर है, उस कुण्ड में कुछ होगा ही नहीं और हम उस कुण्ड को खली रखेंगे तो कैसे हम आध्यात्मिकता में सफल हो पायेगे, तो उस कुण्ड को भरने का काम तो करना पड़ेगा, और वह भराव कैसे होगा, उस भराव को करने के लिए, और उस भराव को रोकने के लिए ही आध्यात्मिकता में यह सारे रास्ते बने हैं, जैसे हम अपनी गृहस्थी को चलाने के लिए कुछ धन कमाते है, किन्तु हम बचत भी तो करते हैं, जो बचत हमारे आड़े वक्त काम आती है, उस बचत को सेव ( Save ) भी कहते हैं, तो इसी प्रकार से जो उर्जा हमने अपने शरीर में इक्कठी की है, कुण्ड में, उस उर्जा को बचाना भी तो है, नहीं तो वह किसी भी रास्ते से बह जायेगी, तो उस उर्जा को कैसे बचाया जाए उसको कैसे अपनी बचत यानी सेविंग बनाया जाए तो वह आध्यात्मिकता में होता है, और फिर उसी उर्जा के बल पर वह आध्यात्मिकता में प्रगति पाता है, जैसे की रोकेट को आसमान में उड़ने और धरती के गुरुत्व आकर्षण को तोड़ने के लिए बहुत उर्जा चाहिए, इसी प्रकार आध्यातिमिकता में भी साधना करने के लिए बहुत उर्जा चाहिए, वह उर्जा जब अग्नि के साथ मिलती है, तो जैसे अग्नि को सूखी लकड़ी या घास मिलने से रौशनी मिलती है, उसी तरह से इस उर्जा के साथ अग्नि लगने से यह और भी तेज़ी से जलती है, और उस जलती हुयी अग्नि का प्रकाश ही फिर उस साधक के चेहरे और आखों, वाणी और व्यवहार से झलकता है, इसलिए कहा है की संत के केवल दर्शन कर लो, सब जीवन सफल हो जाएगा, क्यूँ की उस संत से उस उर्जा को संभाला और उस उर्जा का उपयोग साधना करने में किया है, तो आध्यात्मिकता में यह बहुत जरूरी है, जहाँ ऋषि मुनि की बात है तो में उनकी बारे में टिप्पड़ी नहीं करूंगा, क्यूंकि वह ऋषि की उपाधि किसी को तभी मिलती थी जब वह हजारों वर्षों तक एक आशन में एक समाधी में बैठा रहता था, फिर जब वह ऋषि बन जाता था, उसके बाद विवाह करता था, उसके पहले विवाह नहीं करता था, किसी भी ऋषि का जीवन देख लो, तो मैं वही तो कह रहा हूँ की साधना करके ही तो कोई लायक बनता है, जब वह सिद्ध हो जाता है, तो फिर वह दूसरा काम करता है, भगवान् की दी हुई जिन्दगी है यह तो सब जानते है, किन्तु उसको हम कैसे उपयोग में लाते हैं, यह हमारे हाथ में है, की हम परिस्थिति से समझौता कर लेते हैं, की हम परिस्थिति को बदल देते हैं, परिस्थिति वह होती है की जब कोई साधक साधना में बैठता है और अपनी इस अमूल्य उर्जा को बचाने की फ़िक्र करता है, और जब वह उर्जावान होने लगता है, तो परियों की नज़र उस पर रहती है, तो वह परी ( अप्सरा) आसमान से आती है और उस साधक के सामने स्थित हो जाती है, और उसकी तपस्या भंग करती है, और उसकी कमाई को लूट कर ले जाती है, तो जो स्थिति परी के द्वारा निर्मित की जाए वह परिस्थिति होती है, कई उससे समझौता कर लेते हैं, कई उसे पार कर लेते हैं, जीवन में जिसके भी रूहानियत आती है उसमें सफानियत अपने आप आ जाती है, यानी जिसमें आध्यात्मिकता आती है, उसकी नियत अपने आप साफ हो जाती है, लोग थोडा उल्टा समझते हैं, वह यह समझते हैं की ब्रह्मचर्य जो है वह साधना होता है, आध्यात्मिकता में, बस इसी चक्कर में वो असफल हो जाते हैं, और जिन्दगी के चक्करों से हटकर सात चक्करों के चक्कर में पड़ जाते हैं, जबकि मामला थोडा उल्टा है, जो भी आध्यात्मिकता में उतरता है उसमे ब्रह्मचर्य अपने आप आ जाता है, उसे लाना नहीं पड़ता है, उसका तो जाना उस ओर होता ही नहीं है, यह तो अपने आप आता है, तो कुण्ड में पानी जमा करो, फिर उस पानी से बिजली बनाओ, फिर उस बिजली का उपयोग साधना में देखने के लिए करो, ओर आगे बदने के लिए करो, फिर देखो क्या आनंद आता है, बस बात यही अटक जाती है की वह जो कुण्ड है उससे यह पानी बाहर न जाए, ओर सीधा टरबाईंन पर जाए, यह उपाय कोई नहीं बताता है की यह जो हमने पानी रुपी शक्ति शरीर में इक्कठी की है या कैसे बिजली बनेगी, ओर वह इक्कठी तो हो जाती है पर जब उसको यह ज्ञान नहीं होता है तो फिर पानी का काम है की वह हमेशा नीचे रास्ते पर ही ओर बने बनाये रास्ते पर ही चलता है, तो फिर वह उसी रास्ते पर चला जाता है, किन्तु गर उस पानी को ऊपर चढ़ाना है तो फिर कोई-न-कोई तो विधि होगी, बस वह विधि कौन जानता है, यह ढूढना पड़ेगा, ओर जितने भी शास्त्र, नियम, जो भी साहित्य है वह उसके हित के लिए ही बना है, पर इतने विधियों में इतने शास्त्रों में असली विधि कहाँ खो गयी पता नहीं, जैसे कई नकली नोटों के साथ कुछ असली नोट डाल दो ओर फिर उसको कुछ दिन के बाद ढूँढो तो फिर असली ओर नकली में फर्क नहीं कर पाओगे, इसी को कहते हैं गडमड यानी जो ज्ञान है उसको मड यानी मिटटी में मिला देना, फिर एक बार गडमड होने से फिर मामला बिगड़ जाता है, ओर सही क्या है ओर गलत क्या है ? यह जानना मुस्किल हो जाता है, तो यह मेरा आध्यात्मिकता में जो आना चाहते हैं, उनके लिए है, ओर जो अभी संसार का आनंद लेना चाहते है, वह ख़ुशी-ख़ुशी संसार का आनंद लें |
(नवभारत टाइम्स से साभार)