राज्यसभा की प्रवर समिति की सिफारिशों पर
सदन और सरकार का क्या रुख होगा तथा अंतत: लोकपाल विधेयक का क्या स्वरूप
सामने आयेगा—यह तो समय ही बतायेगा, लेकिन ये सिफारिशें विभिन्न मतों के बीच
सहमति के बिंदु अवश्य सुझाती हैं। प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में
रखने-न रखने पर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच तीव्र मतभेद रहे हैं। दिलचस्प
यह भी है कि भूमिकाओं के मुताबिक राजनीतिक दल इस बाबत अपनी राय बदलते रहे
हैं। इसलिए इस मुद्दे पर सहमति आसान नहीं है, पर राज्यसभा की प्रवर समिति
ने एक मध्यमार्ग सुझाया है। मीडिया में आयी खबरों के मुताबिक समिति ने
सिफारिश की है कि बाहरी एवं आंतरिक सुरक्षा, परमाणु ऊर्जा तथा
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों सरीखे संवेदनशील मामलों को बाहर रखते हुए
प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए। यह सिफारिश इस
दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सत्तापक्ष ऐसे ही संवेदनशील मामलों का
तर्क दे कर प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने पर जोर देता रहा
है। अगर प्रवर समिति की सिफारिश के अनुरूप इस मुद्दे पर सभी पक्षों में
सहमति बन जाती है तो सशक्त लोकपाल की दिशा में एक बड़ी सफलता होगी। इसमें
दो राय नहीं कि जवाबदेही और पारदर्शिता का तकाजा है कि हर किसी को
जिम्मेदारी अैार जवाबदेही के दायरे में होना चाहिए। यही कारण है कि
प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने पर आपत्ति सिर्फ विपक्ष को
ही नहीं, अन्ना हजारे समेत सिविल सोसायटी को भी रही है। नहीं भूलना चाहिए
कि चार दशकों से भी ज्यादा समय से राजनीतिक गलियारों में भटके लोकपाल को
अगर अब राह मिलती नजर आ रही है तो उसका श्रेय अन्ना हजारे के जनलोकपाल
आंदोलन को ही जाता है।
पिछले साल जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक सरकार को हिला देने वाले अन्ना के इस आंदोलन का ही परिणाम था कि दिसंबर, 2011 में संसद के शीतकालीन सत्र के अंतिम दिनों में, सरकार की पसंद का ही सही, लोकपाल विधेयक संसद में पेश किया गया। लोकसभा में सत्तारूढ़ संप्रग का बहुमत है, इसलिए विपक्ष के भारी विरोध के बावजूद वहां लोकपाल विधेयक पारित हो गया, लेकिन राज्यसभा लंबी चर्चा के बाद आधी रात को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गयी। बाद में लोकपाल विधेयक राज्यसभा की प्रवर समिति को भेज दिया गया। उसी प्रवर समिति ने अब अपनी सिफारिशों में कुछ ऐसे बिंदु सुझाये हैं, जिनसे लोकपाल पर अलग-अलग राय रखने वाले पक्षों में सहमति बन सकती है। विवाद का एक बड़ा मुद्दा लोकपाल विधेयक में ही राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति का प्रावधान किया जाना भी है। ध्यान रहे कि अन्ना हजारे की मांग रही है कि लोकपाल विधेयक में ही यह प्रावधान किया जाये कि उसी की तर्ज पर राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति की जायेगी। यह एक ऐसा मुद्दा रहा है, जिस पर अन्ना के समर्थक समझे जाने वाले राजनीतिक दल भी उनके साथ सहमत नहीं हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ संप्रग के भी कुछ घटक दल इस प्रावधान के विरोध में मुखर रहे हैं। इस विरोध का मुख्य तर्क यही है कि लोकायुक्त की नियुक्ति राज्य के अधिकार क्षेत्र का मामला है, इसलिए ऐसा कोई भी प्रावधान देश के संघीय ढांचे और संविधान की भावना के प्रतिकूल होगा।
विवाद का एक और बड़ा मुद्दा सीबीआई की स्वायत्तता का रहा है। अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए देश की प्रमुख जांच एजेंसी सीबीआई के दुरुपयोग के आरोपों से घिरी होने के बावजूद केंद्र सरकार उसे स्वायत्तता देने को तैयार नहीं है। बेशक सीबीआई के राजनीतिक दुरुपयोग के मुद्दे पर भी राजनीतिक दलों के तेवर अपनी भूमिकाओं के साथ बदलते रहे हैं। विपक्ष में आते ही हर दल को सीबीआई के राजनीतिक दुरुपयेाग की चिंता सताने लगती है। इसके बावजूद केंद्र सरकार ने सीबीआई पर अपना नियंत्रण कायम रखने के लिए अनेक तर्क दिये, पर उनका खोखलापन इसी से उजागर हो जाता है कि तटस्थ प्रेक्षकों के गले भी वे तर्क नहीं उतरे। प्रवर समिति ने इस जटिल एवं संवेदनशील मुद्दे पर भी सहमति का मार्ग सुझाया है। मसलन, सीबीआई निदेशक की नियुक्ति को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के लिए समिति ने सिफारिश की है कि यह काम प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और देश के मुख्य न्यायाधीश की तीन सदस्यीय समिति द्वारा किया जाना चाहिए। साथ ही सीबीआई निदेशक का कार्यकाल भी निश्चित होना चाहिए। इसके अलावा समिति की यह सिफारिश भी बेहद महत्वपूर्ण है कि सीबीआई की अभियोजन शाखा का प्रमुख सरकार के बजाय सीबीआई निदेशक के अधीन होगा। अन्ना हजारे की मांग थी कि सीबीआई को लोकपाल के अधीन किया जाये, पर समिति ने यह सिफारिश अवश्य की है कि लोकपाल जो मामले जांच के लिए सीबीआई को भेजेगा, उनकी निगरानी भी खुद कर सकेगा। जरूरत के मुताबिक सीबीआई निजी वकील भी नियुक्त कर सकेगी, पर उसके लिए उसे लोकपाल की मंजूरी लेनी होगी। प्रवर समिति की इन सिफारिशों के बावजूद कुछ बिंदुओं पर कुछ पक्ष असहमत हो सकते हैं, लेकिन लोकतंत्र में आम सहमति से ही फैसले किये जाने चाहिए, जिसके लिए मध्यमार्ग सुझाने का काम इस समिति ने बखूबी कर दिया है।
पिछले साल जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक सरकार को हिला देने वाले अन्ना के इस आंदोलन का ही परिणाम था कि दिसंबर, 2011 में संसद के शीतकालीन सत्र के अंतिम दिनों में, सरकार की पसंद का ही सही, लोकपाल विधेयक संसद में पेश किया गया। लोकसभा में सत्तारूढ़ संप्रग का बहुमत है, इसलिए विपक्ष के भारी विरोध के बावजूद वहां लोकपाल विधेयक पारित हो गया, लेकिन राज्यसभा लंबी चर्चा के बाद आधी रात को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गयी। बाद में लोकपाल विधेयक राज्यसभा की प्रवर समिति को भेज दिया गया। उसी प्रवर समिति ने अब अपनी सिफारिशों में कुछ ऐसे बिंदु सुझाये हैं, जिनसे लोकपाल पर अलग-अलग राय रखने वाले पक्षों में सहमति बन सकती है। विवाद का एक बड़ा मुद्दा लोकपाल विधेयक में ही राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति का प्रावधान किया जाना भी है। ध्यान रहे कि अन्ना हजारे की मांग रही है कि लोकपाल विधेयक में ही यह प्रावधान किया जाये कि उसी की तर्ज पर राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति की जायेगी। यह एक ऐसा मुद्दा रहा है, जिस पर अन्ना के समर्थक समझे जाने वाले राजनीतिक दल भी उनके साथ सहमत नहीं हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ संप्रग के भी कुछ घटक दल इस प्रावधान के विरोध में मुखर रहे हैं। इस विरोध का मुख्य तर्क यही है कि लोकायुक्त की नियुक्ति राज्य के अधिकार क्षेत्र का मामला है, इसलिए ऐसा कोई भी प्रावधान देश के संघीय ढांचे और संविधान की भावना के प्रतिकूल होगा।
विवाद का एक और बड़ा मुद्दा सीबीआई की स्वायत्तता का रहा है। अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए देश की प्रमुख जांच एजेंसी सीबीआई के दुरुपयोग के आरोपों से घिरी होने के बावजूद केंद्र सरकार उसे स्वायत्तता देने को तैयार नहीं है। बेशक सीबीआई के राजनीतिक दुरुपयोग के मुद्दे पर भी राजनीतिक दलों के तेवर अपनी भूमिकाओं के साथ बदलते रहे हैं। विपक्ष में आते ही हर दल को सीबीआई के राजनीतिक दुरुपयेाग की चिंता सताने लगती है। इसके बावजूद केंद्र सरकार ने सीबीआई पर अपना नियंत्रण कायम रखने के लिए अनेक तर्क दिये, पर उनका खोखलापन इसी से उजागर हो जाता है कि तटस्थ प्रेक्षकों के गले भी वे तर्क नहीं उतरे। प्रवर समिति ने इस जटिल एवं संवेदनशील मुद्दे पर भी सहमति का मार्ग सुझाया है। मसलन, सीबीआई निदेशक की नियुक्ति को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के लिए समिति ने सिफारिश की है कि यह काम प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और देश के मुख्य न्यायाधीश की तीन सदस्यीय समिति द्वारा किया जाना चाहिए। साथ ही सीबीआई निदेशक का कार्यकाल भी निश्चित होना चाहिए। इसके अलावा समिति की यह सिफारिश भी बेहद महत्वपूर्ण है कि सीबीआई की अभियोजन शाखा का प्रमुख सरकार के बजाय सीबीआई निदेशक के अधीन होगा। अन्ना हजारे की मांग थी कि सीबीआई को लोकपाल के अधीन किया जाये, पर समिति ने यह सिफारिश अवश्य की है कि लोकपाल जो मामले जांच के लिए सीबीआई को भेजेगा, उनकी निगरानी भी खुद कर सकेगा। जरूरत के मुताबिक सीबीआई निजी वकील भी नियुक्त कर सकेगी, पर उसके लिए उसे लोकपाल की मंजूरी लेनी होगी। प्रवर समिति की इन सिफारिशों के बावजूद कुछ बिंदुओं पर कुछ पक्ष असहमत हो सकते हैं, लेकिन लोकतंत्र में आम सहमति से ही फैसले किये जाने चाहिए, जिसके लिए मध्यमार्ग सुझाने का काम इस समिति ने बखूबी कर दिया है।
- दैनिक ट्रिब्यून से साभार