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गुरुवार, 21 जून 2012

महाराष्ट्र की बिजली के लिए विदर्भ की बलि


0) 1 लाख एकड़ जमीन, 3600 घन मिमी पानी और रोज 18 लाख टन कोयला
0) आत्महत्या रोकने की बजाए अब विदर्भ की जमीन को बंजर बनाने की साजिश

 वर्धा की लैंको ताप बिजली परियोजना को पर्यावरण स्वीकृति का मामला अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुका है। राजनेताओं से लेकर सरकारी अधिकारियों तक, कोई भी इस बात पर कुछ कहने को तैयार नहीं है कि आखिर इससे कितना फायदा और कितना नुकसान होगा। वैसे भी विदर्भ का नाम अब 'सुसाइड जोनÓ के रूप में लिया जाने लगा है। यहां किसानों की आत्महत्या का ग्राफ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। न तो किसी पैकेज से कोई फायदा हुआ और न ही किसी नेता के दौरे से। ऐसे में विदर्भ में 132 बिजली घरों को मंजूरी देना असमय ही समूचे विदर्भ की भूमि को बंजर बनाने का प्रयास ही है। पीडि़तों का कहना है कि आत्महत्याएं रोक पाने में नाकाम सरकार अब कृषि को ही समाप्त कर देना चाहती है। 
सूत्र बताते हैं कि विदर्भ में स्वीकृत 132 बिजली परियोजनाओं के लिए 1 लाख एकड़ जमीन और 3600 घन मिमी पानी का इस्तेमाल होगा। यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि 3600 घन मिमी पानी से 5.50 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हो सकती है। स्थिति यह है कि सिंचाई बैकलाग के मामले में विदर्भ की हालत पहले ही खराब है। यहां की 80 फीसदी जमीन असिंचित है। यहां सिंचाई की व्यवस्था करने की बजाए सरकार यहां का पानी उद्योगों को दे रही है। जल संसाधन विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, अब तक बनाए गए जल प्रकल्पों से जून 2009 तक पश्चिम महाराष्ट्र के कोल्हापुर में 230.22 प्रतिशत, सांगली में 107.35 प्रतिशत, पुणे में 76.99 प्रतिशत, सतारा में 82.57 प्रतिशत और सोलापुर में 66.88 प्रतिशत सिंचाई क्षमता निर्मित की गई। जबकि विदर्भ सिंचाई की अधिकतम संभावनाएं होने के बाद भी आधारभूत संरचना के अभाव में 11 लाख हेक्टेयर का सिंचाई बैकलाग है। 1994 में यह बैकलाग 2.5 लाख हेक्टेयर था। इसे सन 2006 तक समाप्त करने का लक्ष्य रखा गया था। यह पूरा हो न सका। इसके बाद लक्ष्य 2010 का रखा गया। वह भी बीत गया। अब 2016 तक सिंचाई बैकलाग दूर करने का लक्ष्य रखा गया है लेकिन इसके भी पूरे होने की संभावना कम ही दिखाई दे रही है। अमरावती संभाग के किसी भी जिले में यह क्षमता 25 फीसदी का आंकड़ा भी नहीं छू सकी है।
यह भी एक कड़वी सचाई है कि विदर्भ में खनिज संपदा की बहुतायत है। राज्य की 97 फीसदी खनिज संपदा यहां है। इसके बावजूद यहां खनिज से संबंधित उद्योग नहीं लग पाए। इस समय जबकि बिजली उत्पादन के मामले में विदर्भ आत्मनिर्भर है, अनावश्यक रूप से यहां निजी बिजली घरों को स्वीकृति दे दी गई है।
सुप्रीम कोर्ट में भी सोमवार को वर्धा के याचिकाकर्ताओं की ओर से दलील देते हुए एड. मोनिका गुसाईं ने दलील दी कि इन बिजली घरों को बड़ी मात्रा में पानी लगेगा। साथ ही पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचेगा। कंपनी के वकील ने यह जब यह दलील दी कि प्रकल्प पर अब तक 29 करोड़ रुपए खर्च किए जा सके हैं तो कोर्ट ने साफ कहा कि आप जितना चाहे, उतना खर्च कर सकते हैं। आप वहां चैरिटी नहीं कर रहे हैं। हमें पर्यावरण के बिन्दु पर विचार करने दीजिए। 

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पानी के खेल में सब 'पानी-पानीÓ
राज्य में पानी के वितरण का अधिकार पहले उच्चाधिकार समिति के पास हुआ करता था। 2005 में इसे महाराष्ट्र जल संपदा नियमन प्राधिकरण को दे दिया गया। पर सरकार की उक्त समिति की दादागिरी जारी रही। जब मामले न्यायालय में पहुंचने लगे और विरोध के स्वर मुखरित होने लगे, तब सरकार ने बाकायदा अध्यादेश लाकर समूचा अधिकार समिति को दे दिया। सिंचाई परियोजनाओं के पानी पर उद्योगों से पहले किसानों का अधिकार होता है। पानी के मामले में विदर्भ और मराठवाड़ा का स्थिति पहले से ही खराब है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर उद्योगों को पानी देने के लिए सरकार किसानों की बलि क्यों लेना चाहती है।

धांधली ही धांधली
राज्य सरकार के पास सिंचाई योजनाओं को पूरा करने के लिए निधि नहीं है। फिर भी सन 2003 से जनवरी 2010 के बीच राज्य की हेटावणे, अंबा, सूर्या, अपर वर्धा, गंगापुर, उजणी मिलाकर 38 सिंचाई परियोजनाओं का 1500 मीलियन क्यूबिक मीटर पानी कृषि के अलावा अन्य कार्यों के लिए दे दिया गया। इससे अनुमान है कि लगभग साढ़े छह लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि की सिंचाई बाधित हुई।

चंद्रपुर से लेना होगा सबक
कोयला खदान और ताप बिजली परियोजना के कारण आज चंद्रपुर की गिनती देश के सबसे प्रदूषित शहरों में है। यही हाल छत्तीसगढ़ के कोरबा और रायगढ़ का भी है। बिजली घरों निकलने वाली राख की चादर बिछ जाती है। वायुमंडल में आरएसपी कणों की मात्रा बढ़ जाती है। इस तथ्य की जानकारी होने के बावजूद सरकार ने पूरे विदर्भ में ताप बिजली परयिोजनाओं का जाल बिछाने का फैसला ले लिया। यानी समूचे विदर्भ को राख की चादर में बदलने का षडय़ंत्र।

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