नक्सलवाद
यानी
पैसा, हथियार और सेना
यानी
लूट, सौदा और दहशत
पिछले चार दशकों में नक्सलियों और अब माओवादियों ने जनांदोलन से ऊपर उठते हुए सश क्रांति के नाम पर किसी देश की फौज की तर्ज पर अपना ढांचा खड़ा कर लिया है। मतलब साफ है कि बाकायदा सेना की संरचना तैयार करने के लिए उन्हें धन, मानवबल और हथियारों की आवश्यकता होती है। हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ में जब्त हथियारों से यह बात साफ हो गई है कि नक्सली न सिर्फ विदेशी हथियार इस्तेमाल करते हैं बल्कि उनके संपर्क सूत्र हमारे देशकी आयुध निर्माणियों तक भी फैले हुएहैं। गत वर्ष छत्तीसगढ़ के जशपुर में हथियारों से भरा ट्रक पकड़ाया था, उसमें हथियार आर्डिनेंस फैक्टरी, पुणे के भी थे। इससे अब यह धारणा पुरानी हो चली है कि नक्सली लुटे हुए हथियारों पर ही निर्भर रहते हैं। एक नया तथ्य सामने आया है कि इस वामपंथी उग्रवाद का प्रत्येक समूह अन्य चीजों के अलावा हथियार खरीदने के लिए लाखों रुपये खर्च करता है। केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों द्वारा चलाए गए अभियानों के दौरान हाल ही में उग्रवादियों के जब्त रिकॉर्ड से खुलासा हुआ है कि नक्सली लेवी, फिरौती और धमकियों के जरिये सालाना करोड़ों रुपये जुटाते हैं। केंद्रीय सुरक्षा एजेंसी के अधिकारियों ने बताया कि नक्सलियों की अपनी कारपोरेट शैली में अकाउंटिंग पद्धति है। इनके दलम में आम तौर पर 20 से 40 सदस्य होते हैं और ये दल अपने क्षेत्रीय कमांडर को छमाही आधार पर अपनी आय और खर्च का ब्योरा देते हैं। ये ब्योरा इससे ऊपरी स्तर पर पहुंचाया जाता है। बताया जाता है कि हथियार खरीदने पर किए गए खर्च का लेखा-जोखा अलग से रखा जाता है। नक्सलियों का वर्चस्व देश के 40 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है जिसे रेड कॉरिडोर के नाम से जाना जाता है। जानकारों के मुताबिक इस रेड कारिडोर से प्रतिवर्ष नक्सलियों को 16 000 करोड़ रुपयों की आय होती है। नक्सलियों के पास धन इसकी उप समिति और क्षेत्रीय समिति से आता है। आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक नक्सली विदेश निर्मित विशेष रूप से चीन और अमेरिका द्वारा निर्मित हथियारों का ही ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। बिहार, झारखंड और आंध्रप्रदेश के माओवादी चीन सहित विदेशी छोटे हथियारों का इस्तेमाल करते हैं जबकि पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के नक्सली स्थानीय हथियारों से ही काम चलाते हैं। सूत्रों का कहना है कि रूस निर्मित एके सीरिज की बंदूकें माओवादियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं। सुरक्षा बलों ने नक्सलियों के कब्जे से एके-47, एके-56, पाकिस्तान निर्मित पीका गन और इजराइली स्नाइपर गन बरामद किए हैं। सूत्र बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के जवानों पर किए गए हमले में नक्सलियों ने आंध्र प्रदेश और उड़ीसा के पुलिस बल से चुराए गए हथियारों का इस्तेमाल किया था। सूत्रों के मुताबिक घटनास्थल के सर्वे से लगता है कि हमले में इस्तेमाल किए गए दो एलएमजी आंध्र प्रदेश के पुलिस बल या फिर उड़ीसा के पुलिस बल से चुराए गए थे। सूत्रों के मुताबिक पापा राव की अध्यक्षता वाली माओवादियों की केन्द्रीय समिति की कंपनी 3 और कंपनी 8 ने इनका इस्तेमाल किया था। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के अब तक के सबसे घातक हमले के बारे में ‘कुछ गलती’ होने की बात स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार ने इस घटना की जांच कराने की घोषणा तो कर दी है। लेकिन गृहमंत्री ने इन खबरों को गलत बताया कि हमले में प्रेशर बमों का इस्तेमाल किया गया था और स्थानीय पुलिस को सीआरपीएफ के ऑपरेशन की जानकारी नहीं थी। उन्होंने कहा हमले में शहीद 76 जवानों के सभी हथियार नक्सली अपने साथ ले गए। चिदंबरम का मानना है कि नक्सली सीमा पार से हथियार खरीदते हैं। सीमापार हथियारों के बाजार हैं। उन्होंने नेपाल, म्यांमार और बांग्लादेश के साथ भारत की खुली सीमा का जिक्र किया। नक्सलियों के वित्तीय स्रोतों के बारे में पूछे जाने पर गृह मंत्री ने कहा कि वे बैंक लूटते हैं और अपने इलाके की खनन कंपनियों से वसूली करते हैं।
सीआरपीएफ-पुलिस में तालमेल का अभाव
सीआरपीएफ के आला अधिकारी भले ही यह बयान दे रहे हों कि अब राज्य पुलिस के साथ बेहतर तालमेल किया जाएगा। लेकिन इस संबंध में पुराना अनुभव कुछअच्छा नहीं है। केंद्रीय सुरक्षा बल इन इलाकों में अपनी डफली अपना राग अलापते नजर आते हैं। हालयिा दिनों में सीआरपीएफ ने कुछ कोशिशें ग्रामीणों के बीच अपनी विश्वसनीयता बनाने के लिए की थीं लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। यही कारण है कि नक्सली सबसे अधिक राज्य के विशेष पुलिस अधिकारियों से खौफ खाते हैं। यही कारणहै कि सलवा जुडूम और एसपीओ का नक्सलियों के हमदर्द पुरजोर विरोध करते हैं। सीआरपीएफ के जवान तो इन नक्सलियों के लिए सबसे आसान टार्गेट माने जाते हैं। छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन का कहना है कि ‘दंतेवाड़ा मामले में सीआरपीएफ को भारी क्षति इसलिए पहुंची क्योंकि जवान जमीनी स्थिति का आकलन नहीं कर पाए। वे मुठभेड़ स्थल का अनुमान नहीं लगा पाए और जाल में फंस गए। हम आपरेशन ग्रीन हंट को अब अधिक मुस्तैदी से चलाएंगे।
नक्सलियों को धन मुहैया कराते एनजीओ
एक ओर प्रदेश स्तर से लेकर केंद्रीय सरकार नक्सलियों पर नकेल कसने की बात करती है, लेकिन विभिन्न एनजीओ के माध्यम से विदेशों से मिलने वाले धन के बल पर नक्सली अपने मंसूबों को पालने में सक्षम हो रहे हैं। हालिया घटनाक्रम में इस प्रकार के संकेत मिल रहे हैं कि नक्सली संगठनों को विदेशों से पैसा मिल रहा है और उसका माध्यम कई गैर सरकारी स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) हैं। जानकारों का कहना है कि कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा जनजातियों के कल्याण के नाम पर लिए जा रहे विदेशी धन का कुछ हिस्सा नक्सलियों के पास पहुंच रहा है। जाहिरतौर पर कोई भी संगठन बगैर आर्थिक मदद के नहीं चल सकता। सो, नक्सली संगठनों को भी विदेशों से धन मिलना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता। केंद्र और राज्य सरकार की मदद से चलने वाली ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसी योजनाओं का धन भी सीधे-सीधे नक्सलियों के पास पहुंचता है। यही कारण है कि इंद्रावती नेशनल पार्क जैसे धूर नक्सली इलाके में टाइगर कंजर्वेशन के नाम पर आबंटित करोड़ों की राशि कहां जाती है, किसी को पता नहीं है। सरकारें देश के दुर्गम इलाकों तक अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन की बात करती हैं लेकिन जब नक्सलियों के कब्जे वाले दुर्गम आदिवासी इलाकों में जाकर स्थिति का पता लगाया तो मामला वही ढाक के तीन पात ही नजर आता है। यानी विकास कार्यों पर खर्च की गईराशि कहां चली जाती है, इसका कोई पता नहीं। हां, कागजात जरूर तैयार रहते हैं। जानकार बताते हैं कि ग्राम पंचायत स्तर पर खर्च होने वाली राशि का 8 0 फीसदी सीधे नक्सलियों के पास पहुंच जाता है।
वाम दल यानी हाथी के दांत
नक्सली वारदातों से यह साफ हो गया है कि वामपंथियों के खाने के दांत अलग हैं और दिखाने के अलग। सीपीएम के कर्ताधर्ता नक्सलियों से किसी भी प्रकार के संबंधों से इंकार करते हैं। सीपीएम की राष्ट्रीय कांग्रेस में इस आशय का प्रस्ताव पास हो चुका है। लेकिन क्या जमीनी हकीकत में ऐसा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि तृणमूल कांग्रेस की तरफ नक्सलियों के रूझान के कारणवामदल ज्यादा परेशान हैं। क्योंकि पश्चिम बंगाल की सत्ता जाने का सदमा झेलना सीपीएम के बस का नहीं है। इसका एक ओर उदाहरण तब सामने आया जब सीआरपीएफ जवानों की शहादत पर जहां पूरा देश गम में डूबा हुआ था वहीं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय कैम्पस में कुछ धूर वामपंथी विचारधारा वाले छात्र संगठनों ने इस नरसंहार पर जश्न मनाया। इस मसले पर विवि परिसर में छात्र संगठनों के बीच झड़प भी हो गई। दो छात्र संगठनों डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन (डीएसयू) और ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आइसा) ने सुरक्षाबलों के नक्सलविरोधी अभियान ग्र्रीन हंट के खिलाफ विवि कैम्पस में ही एक सभा का आयोजन किया। यहां नक्सल समर्थक छात्र समूह जवानों के कत्लेआम पर जश्न मना रहा था।
बंगाल की सत्ता पर पिछले तीन दशक से वाम मोर्चा काबिज है और इसी दरम्यान नक्सली गतिविधि भी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती दिखीं। पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में जब नक्सलियों का हस्तक्षेप अपनी हदें पार करने लगा तो केंद्र सरकार ने हस्तक्षेप कर ऑपरेशन लालगढ़ चलाया। इस आपरेशन में लगभग १००० जवानों को लगाया गया। काफी विवाद हुआ। लेफ्ट समर्थित बुद्धिजीवियों ने अपनी सारी बुद्धिमत्ता इस आपरेशन के खिलाफ झोंक दी। कुछ दिन बाद ही बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने अपने तथाकथित वोट बैंक को बिखरता देख पूरे ऑपरेशन पर सवालिया निशान लगा दिया। लालगढ़ को तो नक्सलियों के कब्जे से मुक्त कराया गया परन्तु सिर्फ शाबासी बटोरने तक। बाद में यह आपरेशन भी काल की भेंट चढ़ गया।
2 टिप्पणियां:
...प्रभावशाली अभिव्यक्ति!!!
भाई आपने हालात को स्वयं अपनी आंखों से देखा है एवं अनुभव किया है. बेहतर जानकारी दी है आपने धन्यवाद.
एक टिप्पणी भेजें