कर्ज से दबे किसानों के पास खेती के अलावा ऐसा कोई दूसरा काम नहीं जिससे वह अपना क़र्ज़ उतार सकें. कपास की खेती उन्हें वर्षों से रुला रही है. किसानों को ख़ुदकुशी से बचाने के लिए सरकार ने उन्हें कपास की जगह सोयाबीन की खेती करने की सलाह दी. मजबूर किसानों ने सरकारी सलाह मानते हुए बड़ी उम्मीद के साथ कपास की जगह सोयाबीन का दामन थामा. एक उम्मीद की किरण दिखाई दी, लेकिन किसानों को एक बार फिर मायूसी ही हाथ लगी. हालात इतने ख़राब हैं कि विदर्भ की धरती सुसाइड ज़ोन बनती जा रही है और यहां किसानों की आत्महत्या रुकने का नाम नहीं ले रही है. कभी बारिश की बेरुख़ी तो कभी फसलों पर रोगों का प्रकोप, तो कभी कृषि उत्पाद का बहुत कम भाव मिलना परेशानी का कारण बना हुआ है. कुल मिलाकर हालात साल दर साल ख़राब ही होते जा रहे हैं.
किसानों की ख़ुदकुशी के मामले में महाराष्ट्र का विदर्भ बदनाम है. यहां क़र्ज़ के बोझ के चलते रोज़ाना किसान अपनी ज़िंदगी ख़त्म कर लेते हैं. सालों से चल रहा ये सिलसिला आज भी क़ायम है. सरकार ने इसे रोकने की कोशिश की, लेकिन परिणाम शून्य ही रहा है.
साल 2007 में विदर्भ में 1556 किसानों ने आत्महत्या की. आंकड़ों की तऱफ नज़र डालें तो 2004 से 2010 तक 8004 किसान काल के गाल में समा गए. किसानों की ख़ुदकुशी की संख्या में इज़ा़फा भी सरकारी पैकैज में बढ़ोतरी के साथ हुआ है. दशक के आंकड़ों पर नज़र डालें तो साल दर साल हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. यह हालत उस विदर्भ की है, जहां 22 लाख से ज़्यादा किसान हैं. इनमें से 90 फीसदी क़र्ज़ के बोझ तले दबे हैं. यहां किसान सरकारी बैंकों के अलावा सेठ साहूकारों से भी क़र्ज़ लेते हैं. किसानों की मूल समस्याओं पर न तो राज्य और न ही केंद्र सरकार ने कभी गंभीरता से काम किया है. अब साहूकारों के क़र्ज़ पर पाबंदी लग गई तो माइक्रो फाइनांस के नाम पर बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियां इस धंधे में कूद गईं हैं. जानकारों को डर है कि आने वाले दिनों में कृषि पर रिटेल की तरह ही कॉरपोरेट समूहों का क़ब्ज़ा हो जाएगा.
विदर्भ में आज सबसे अधिक ज़रूरत ग्रामों के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को पुनर्स्थापित करने की है. इसके तहत खाद्य सुरक्षा, निःशुल्क स्वास्थ्य सुरक्षा, असिंचित ज़मीन वाले किसानों को वैकल्पिक आय के साधन के साथ ही आत्महत्या कर रहे परिवारों के बीच प्रशासन की पुख्ता पहुंच जैसे मुद्दों पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है. बारिश अधिक हो जाए या कम, या फिर प्रकृति की मेहरबानी के बावजूद फसल रोगों के प्रादुर्भाव से नष्ट हो जाए. ऐसे में किसानों के लिए आय के वैकल्पिक उपाय योजना पर ध्यान दिए जाने की भी ज़रूरत है. आंकड़े बताते हैं कि विदर्भ में किसानों को फसल के लिए मिलने वाली क़र्ज़ की राशि भी कम हुई है. सन 2006 में जहां किसानों को 1800 करोड़ रुपए का क़र्ज़ दिया गया था, वहीं सन 2010 में यह आंकड़ा महज़ 1160 करोड़ रुपए पर सिमट कर रह गया. नगद फसल की ओर भी किसानों का रुझान सरकारी तौर पर बढ़ाया गया है. सन 2000 में जहां नगद फसल 70 फीसदी और अनाज 30 फीसदी क्षेत्रफल में लगाया गया था, वहीं 2010 में अनाजों का क्षेत्रफल घटकर महज़ 5 फीसदी रह गया. नगद फसल पूरी तरह प्रकृति पर आश्रित रहती हैं, क्योंकि तमाम प्रयासों के बावजूद विदर्भ में 20 प्रतिशत से अधिक सिंचाई की व्यवस्था नहीं हो सकती है. ऐसे में सिंचाई की ज़रूरत वाली फसलों को प्रोत्साहित करना भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सेंध लगाने जैसा ही है. इसके साथ ही विदर्भ में सबसे बड़ी ज़रूरत जल संवर्धन को एक आंदोलन का रूप प्रदान करने की है. गांवों में खेत तालाब और गांव तालाब को गहरा करने जैसे विकल्प सस्ते भी हैं और प्रभावशाली भी. कुछ वर्षों पूर्व गांव के तालाब को गहरा करने का अभियान पूरे राज्य के लिए शुरू किया गया था, लेकिन समय के साथ इसका हश्र भी अन्य शासकीय योजनाओं जैसा ही हो गया.
वर्षवार किसानों की आत्महत्या |
2004 | 256 |
2005 | 666 |
2006 | 1886 |
2007 | 1556 |
2008 | 1680 |
2009 | 1054 |
2010 | 706 |
कुल | 8004 |
मनरेगा के तहत कुछ लोगों को रोज़गार तो मिल गया, परन्तु यहां भी ठेकेदारों की मिलीभगत से सब कुछ काग़ज़ों पर ही सिमट कर रह गया. तालाब को गहरा करने के उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो पाई. जानकार बताते हैं कि यदि जल संवर्धन के प्रयासों को बढ़ावा दिया गया तो गांवों में सुजलाम, सुफलाम की स्थिति आ सकती है. खाद और बीज की क़ीमतों पर भी नियंत्रण नहीं है. परंपरागत बीजों और खाद का चलन ख़त्म हो गया है. खाद और बीज उत्पादक कंपनियों की मार्केटिंग इतनी प्रभावशाली रही कि रसायनयुक्त बीजों और खाद ने परंपरागत कृषि पर क़ब्ज़ा जमा लिया. मिट्टी के क्षरण को रोकने के साथ ही ज़ीरो बजट वाली पारंपरिक खेती को प्रोत्साहित करने की अपेक्षा महंगे खाद, बीज को प्रोत्साहित किया जाना समझ से परे है. राज्य और केंद्र दोनों ही सरकारों को इस संबंध में ठोस नीति बनानी चाहिए. किसानों को आर्थिक पैकेज की घोषणा केंद्र और राज्य द्वारा लगातार की जा रही है. 2004 में 1075 करोड़, 2005 में 3750 करोड़, 2008 में 71 हज़ार करोड़, जबकि 2009 में 6208 करोड़ रुपए का पैकेज दिया गया. इसके साथ ही किसानों की आत्महत्या की संख्या भी घटती-बढ़ती रही है. गौ पालन को बढ़ावा देने की बात कृषि के साथ वैकल्पिक व्यवसाय के रूप में की जाती है, लेकिन यहां ऐसा नहीं हो पाया. सन 2000 में जहां विदर्भ के किसानों के पास 26 लाख गायें थीं, वहीं 2010 में यह संख्या घटकर 6 लाख पर पहुंच गई. बैंकों द्वारा किसानों के कृषि क़र्ज़ तो कम कर दिए गए, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि मोटर साइकिलों की संख्या और शराब का सेवन 10 गुना से ज़्यादा हो गया. सन 2000 में शराब का सेवन 2 लाख लीटर था, वहीं सन 2010 में यह बढ़कर 24 लाख लीटर हो गया. मोटर साइकिल के मामले में भी यही स्थिति है. सन 2000 में जहां 80 हज़ार मोटर बाइक थी, वहां सन 2010 में इसकी संख्या बढ़कर 8 लाख हो गई. सरकारी आंकड़े भी कहते हैं कि राज्य में 1999 के 66 लाख बीपीएल परिवारों की तुलना में सन 2010 में यह संख्या घटकर 16 लाख परिवार पर सिमट गई. किसानों की आत्महत्या भी बढ़ी, ग़रीबी रेखा के नीचे लोगों की संख्या घटी, मोटर साइकिलों की संख्या बढ़ी, शराब का सेवन बढ़ा, यानी हर जगह आंकड़ों के साथ छेड़छाड़.
किसानों की हालत सुधारने की दिशा में कार्य करने वाली स्वयंसेवी संस्था विदर्भ जनांदोलन समिति के अध्यक्ष किशोर तिवारी इन सभी समस्याओं के लिए सरकार और किसानों के रहनुमा नेताओं को दोषी मानते हैं. तिवारी का मानना है कि ऐसे समय जब विदर्भ में 20 फीसदी से अधिक सिंचाई की सुविधा संभव ही नहीं है, नगद फसल को बढ़ावा देना ग़लत है. नगद फसलें गन्ना, कपास आदि के लिए सिंचाई ज़रूरी है. सिंचाई के साथ ही इन फसलों की लागत मूल्य भी अधिक होती है, जबकि यहां ऐसी फसलों को ही बढ़ावा दिया जाना चाहिए जो बारिश के पानी के भरोसे ही अच्छी पैदावार दे सकें. अनाज की जगह नगद फसलों को प्रोत्साहित करना ही किसानों को मौत का निमंत्रण देना है.
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