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मंगलवार, 13 सितंबर 2011

भावनाओं का ज्वार


कभी-कभी सोचता हूं कि ये भावनाओं का ज्वार इतना विकट क्यों होता है. इतना विकट की पूरे शरीर को ही कमबख्त निकम्मा बना देता है. सच भी है कि ये भावनाओं का ज्वार आखिर इतनी तीव्रता से क्यों उठता है. वो भी ऐसी परिस्थितियों का जिनसे चल रही जिंदगी का ज्यादा कोई लेना-देना न हो. कई ऐसे भी लोग मिलते हैं जिनके मनमाफिक अगर आप करते जाएं तो आपसे अच्छा इस दुनिया में कोई नहीं होता. और अगर उनके खिलाफ थोड़ा भी किया तो समझ जाइये आपकी आफत है. इसे ही कहते हैं टेकेन फार ग्रान्टेड. यानी आप पर पूरा अधिकार.
देखा जाए तो सामान्यतः दूर के या व्यावसायिक रिश्तों में ऐसा कुछ नहीं होता है. वहां सबकी सीमाएं परिभाषित रहती हैं. जब रिश्ते नजदीक के बन जाते हैं तो यह होने लगता है. इसका सबसे अधिक घातक पहलू यह होता है कि अगर सामने वाला ज्यादा ही सेल्फसेंटर्ड या आत्मकेंद्रित हो तो समझो कि सब गड़बड़ झाला हो गया. आप भावुक या संवेदनशील रहें और सामने वाला आत्मकेंद्रित तो फिर भावनात्मक ब्लैकमेलिंग की स्थिति भी आ जाती है. हम चाहते हुए भी ऐसे लोगों से अलग नहीं हो पाते क्योंकि ये आत्मकेंद्रित लोग बहुत ही चालाक किस्म के होते हैं. दूसरों पर दोष मढ़ते हुए अपना काम निकालना इन्हें बखूबी आता है. ये झूठ पर झूठ बोलते जाएं और आप उन्हें अपना समझ के नजरअंदाज करते जाएं, तब तक ठीक है. क्योंकि तब तक इनका अहं संतुष्ट होता रहता है. लेकिन अगर आपने एक भी बार इनको आइना दिखाया तो समझ लीजिए आपकी शामत है. ऐसे लोग ताउम्र तकलीफ झेलते हुए अपने मिशन में यानी आपको अपने सांचे में ढालने या फिर ये कहें कि आपको अपना गुलाम बनाने का पूरा प्रयास करते रहते हैं.
सवाल इस बात का नहीं है कि कुछ लोग ऐसा करते हैं. सवाल इस बात का है कि जो भावुक होते हैं, परिस्थिति के साथ संवेदनशील होते हैं, ईश्वर को मानने वाले होते हैं, उन्हें क्यों खामख्वाह दुख झेलना पड़ता है. वो तो सिर्फ सामने वाले की भावनाओँ की कद्र कर रहे होते हैं. किसी महिला को यदि आप किसी सही कारण से हाथ नहीं लगाते हैं तो वो आपको नपुंसक की उपाधि से भी सम्मानित कर सकती है. क्योंकि उस पर आपका अधिकार है तो जैसा वो चाहे, वैसा आपको करना होगा. आप अपनी मर्जी उस पर थोप नहीं सकते क्योंकि आप उसके लिए टेकेन फार ग्रांटेड हैं.
ईश्वर से यही प्रश्न रहता है हमेशा कि जिस व्यक्ति को टेकेन फार ग्रांटेड समझा जाता है, जब उसकी गलती नहीं होती है तो उसे दुख क्यों झेलना पड़ता है. बड़े-बड़े संत-महात्माओं को तकलीफें क्यों झेलनी पड़ीं. चलो उन्होंने तो समाज की कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष किया लेकिन ये बेचारे सांसारिक प्राणियों को क्यों कर इतना दुख झेलना पड़ता है. सीधा सा गणित समझ में आता है कि जिसकी गलती, उसे सजा मिलनी चाहिए. लेकिन यहां तो जिसकी गलती नहीं होती, उसे ही सजा मिल जाती है. फिर कहते हैं सब कुछ ईश्वर का विधान है. इसे ईश्वर की मर्जी मान कर संतोष कर लो. चलो वो कर लिया अब क्या.
वैवाहिक संबंधों में भी यह लागू होता है. ज्यादातर तो पति ही पत्नी को टेकेन फार ग्रांटेड मान लेता है. लेकिन बदलते परिवेश में पुरुषों पर भी यह बात लागू होती है. यानी महिलाएं और वो कामकाजी महिलाएं कई बार पतियों को टेकेन फार ग्रांटेड मान लेती हैं. इसके कई आयाम होते हैं. जैसे बच्चों के कारण, हिन्दू विवाह अधिनियम के कारण, समाज की मान्यताओं के कारण, परिवार के रीतिरिवाजों के कारण एक संवेदनशील या भावुक प्रकृति का पति अपनी पत्नी के साथ वो सलूक नहीं कर पाता जो वह किसी बाहरी व्यक्ति के साथ कर सकता है. साफ जिंदगी भर उत्पीड़न के बोझ तले दबे रहना. अपना सब कुछ गंवा कर भी जब उस व्यक्ति को चैन नहीं मिलता है तो इसकी परिणति कई बार अपराध के स्वरूप में तो कई बार आत्मघात के रूप में सामने आती है.
कई लोग कहते हैं कि आत्मघात कोई विकल्प नहीं होता. जब दो लोग साथ में नहीं रह पाते तो उन्हें अलग हो जाना चाहिए.

(जारी..........)

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