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शनिवार, 10 सितंबर 2011

जरा संभल के आडवाणीजी

अब भ्रष्टाचार के खिलाफ आडवाणीजी यानी भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता लालकृष्ण आडवाणी एक और रथ यात्रा निकालने वाले हैं. वैसे तो आडवाणी को भारतीय राजनीति में शतरंज की चाल चलने वाला एक मंजा हुआ खिलाड़ी माना जाता है, लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा की पराकाष्ठा नहीं है. सवाल यह उठता है कि जब पिछले चुनाव में उनको प्रधानमंत्री का प्रत्याशी बनाकर पार्टी को कमजोर कांग्रेस ने पटखनी दे दी तो फिर अचानक क्या हुआ कि उन्हें यह यात्रा निकालने की घोषणा करनी पड़ी. वो भी पार्टी के कद्दावर नेताओं की अनुपस्थिति में.
आडवाणी ने अपनी छवि ही कुछ ऐसी बनाई है कि जब भी वे कुछ करने के लिए या फिर यह कहें कि मास मूवमेंट के लिए आगे आते हैं तो उसमें किसी और खिचड़ी पकने का अंदेशा हो जाता है. सवाल उठाए जा रहे हैं. कोई कहता है कि भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष नितिन गड़करी को हाशिए पर डालने के लिए यह है. कोई कहता है कि पार्टी में अपनी चौधराहट बिखेरने के लिए वे ऐसा कर रहे हैं. अटकलें तो यह भी हैं कि अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ मिले जनसमर्थन को वे भुनाना चाहते हैं. बहरहाल अब तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इस संबंध में कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है. संघ की खामोशी का राज भी जानना जरूरी है.
खैर, परिवार के अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी ठीक नहीं है. लेकिन अन्ना हजारे को मिले जनसमर्थन की आड़ में यदि यह यात्रा निकाली जा रही है तो भी इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं. और ऐसे में संघ को देर सबेर यह तय करना ही होगा कि भ्रष्टाचार का मुद्दा जीवित रखना है या आडवाणी का. ऐसे वक्त में जब समूचे देश का एक बड़ा वर्ग भ्रष्टाचार के खिलाफ लामबंद हुआ है, ऐसे किसी प्रयास को स्वीकृत नहीं किया जा सकता जिससे एक बार भी जनता स्वयं को छला हुआ महसूस करे. आडवाणी हों या मनमोहन, या फिर कोई अन्य राजनेता. यह बात सभी को समझनी ही होगी या यूं कहें कि स्वीकार करनी ही होगी कि जनता का विधायिका से यानी राजनेताओं से विश्वास डगमगा गया है. पक्ष, विपक्ष, तीसरी ताकत, हर ओर से जनता को धोखा ही मिला है. ऐसे में यदि अन्ना हजारे के आंदोलन को व्यापक और स्वस्फूर्त समर्थन मिला है तो अब समझ लेना चाहिए कि सुधार की प्रक्रिया शुरू करने का समय आ गया है. अन्यथा अगर जनविस्फोट हो गया तो सभी सड़क पर आ जाएंगे.
अन्ना हजारे के पूरे आंदोलन के दौरान आडवाणी को कभी उनकी फिक्र नहीं हुई. आडवाणी को लौहपुरुष (जिसे उनके मीडिया प्रबंधन ने बहुप्रचारित किया) तब माना जाता जब वे बाबा रामदेव के समर्थकों पर हुई पुलिसिया कार्रवाई और अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान लौह शक्ति से खड़े हो जाते. ऐसा कुछ नहीं हुआ. भारतीय जनता पार्टी से सिर्फ नितिन गड़करी ही पूरी शिद्दत से बयान देते रहे. उनके बयान के बाद ही संसद में भाजपा ने अन्ना हजारे का स्पष्ट समर्थन किया.
वैसे आडवाणी की नाराजगी भी जायज है. संसद सत्र के आखिरी दिन उन्हें संसद में बोलने नहीं दिया गया. जब उन्होंने जबरदस्ती बोला तो माइक बंद कर दिया गया और उनके बयान को रिकार्ड से हटा दिया गया. यानी जो काम संघ और भाजपा के लोग नहीं कर पाए, उसे सरकार ने कर दिखाया. अपने कद के आगे सभी भाजपा अध्यक्षों को नीचा दिखाने वाले आडवाणी का लक्ष्य अब गडकरी हैं. यह बात अब एकदम साफ है. मगर भाजपा का कोई भी नेता आडवाणी के खिलाफ अब भी नहीं बोल सकता है. अन्ना आंदोलन के दौरान गड़करी की सक्रियता ने आडवाणी को उनकी चौधराहट के खिलाफ गंभीर संकेत दे दिया था. रही-सही कसर सरकार ने लोकसभा में निकाल दी. आडवाणी ने भी आनन-फानन में अपने सिपहसालार सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के साथ बैठक कर घोषणाएं कर डाली. अब इसे अब तक किसी ने गंभीरता से नहीं लिया है, यह बात अलग है.
लेकिन अगर आडवाणी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यात्रा निकालते हैं तो इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं. अन्ना हजारे पर संघ व भाजपा का चेहरा होने का आरोप कांग्रेस के दिग्विजय सिंह जैसे शातिर राजनेता पहले ही लगा चुके हैं. इस कदम से उनके कथन को बल मिलेगा. और हो सकता है अपने परंपरागत अंदाज में कांग्रेस इस मुद्दे को उछाले. यानी मुद्दाविहीन कांग्रेस को बोलने का एक मौका देना. दूसरा यह कि यदि उनकी यात्रा पिछली यात्राओं की तरह असफल हो जाती है तो यह साबित हो जाएगा कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जो समर्थन हजारे को है वो भाजपा को नहीं है. यानी फिर वही विकल्पहीनता की स्थिति. इसलिए आडवाणीजी जरा बचके. व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की आग में जनता की अपेक्षाओं और लोकतंत्र के संतुलन को खराब मत कीजिए.

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