इस समय नागपुर का मौसम

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

बेटी से ज्यादा प्यारी है वो ‘गुड़िया

बहुत प्यारी है वो, बिल्कुल मेरी छोटी सी गुड़िया जैसी... वो गुस्सा होती है तो प्यार आता है... वो उलाहना देती है तो प्यार आता है.... उसकी तबीयत खराब होती है तो प्यार आता है... लेकिन जब प्यार करती है तो.... पता नहीं क्या हो जाता है.... अरे, उसे नहीं मुझे। जब वो प्यार करती है तो मैं बेचैन हो जाता हूं... शायद इतने प्यार की आदत नहीं है न... शायद कभी जिंदगी में इतना प्यार नहीं मिला न... इसलिए जब वो प्यार करती है तो मैं पचा नहीं पाता हूं. अजीब सी गुड़िया है वो.... मेरी एक बेटी है, नाम है उसका रिका. वो भी मुझे बहुत प्यार करती है लेकिन रिका का प्यार मेरे और अपनी मां के बीच विभाजित है. लेकिन इस छोटी सी गुड़िया का प्यार तो एक दम परिष्कृत, अविभाजित है. वह अपना प्यार किसी के साथ नहीं बांटती. वो जब प्यार करती है तो सिर्फ मुझसे करती है. थोड़ी बेवकूफ भी है... लेकिन मजे की बात ये है कि उसकी बेवकूफी में भी मुझे प्यार आता है... अब देखो ना हर जगह प्यार... ही प्यार है... एक और समस्या, अगर ये बात बेटी यानी रिका को पता चल गई तो फिर एक और महाभारत... वैसे वो अभी छोटी है... मेरा ब्लाग पढ़ने में उसे अभी ५ साल और लगेंगे. इसलिए चिंता की बात नहीं है.
अब फिर उसकी बात. मुझे चिढ़ाने के लिए या फिर झांसी की रानी बनके उसने किसी दूसरे से पींगें लड़ाईं. मैंने पहले तो ध्यान नहीं दिया. लेकिन अब वो कहते हैं न... नहीं रहा गया मुझसे तो लिख दिया कि मुझे जो गिफ्ट दिया है उसकी कीमत बताओ... वापस करना है... बस हो गया... उसका प्यार फिर झलकने लगा... बिफर गई... मेरी क्या कीमत लगाओगे... बताओ मेरी क्या कीमत है बाजार में... मुझे तो मर्दों की आदत पड़ गई है... वगैरह-वगैरह. सच में जब वो ये सब लिख रही थी तो मैं मुस्कुरा रहा था. हम दोनों के बीच संबंध ही ऐसे बन गए हैं कि हमारा एक-दूसरे से मिलना जरूरी नहीं है. बदमाशी थोड़ी मैं ही करता हूं.... कभी कुछ पी ली तो कभी किसी को देख लिया. लेकिन उसने कभी ऐसा नहीं किया. उससे मुझे तभी तकलीफ हुई जब उसने मुझ पर अपना प्यार उड़ेला. बताया न मुझे शायद आदत नहीं है... इतना प्यार पचाने की.
हमारे बीच नजदीकी इतनी है कि एक समय वो क्या कर रही है, या मैं किस मूड में हूं... हम दोनों को मालूम रहता है. जब एक को नींद आती है तो दूसरे को भी आती है. जब एक जागता है तो दूसरा भी जागता है. अब ये भी झगड़े का कारण बनता है. जब हमारे यहां दिन होता है तो उसके यहां रात होती है. तो जब वो दिन में मुझे याद करती है तो मुझे रात में नींद नहीं आती. मैं दिन में काम में इतना व्यस्त हो जाता हूं कि याद करने का समय ही नहीं मिलता... (गुस्सा मत होना भाई ये पढ़ कर)... लेकिन रात में जब वो सोती है तो मुझे दिन में आफिस में नींद आती है.
चलो अब तो झगड़ा हो गया है. अब दूरी ही रहनी है. तो इस दूरी वाले प्यार को अब मैं सहेजूंगा. कम से कम अब प्यार पाने से तकलीफ तो नहीं होगी. चलो अच्छी है ये दूरी...
लेकिन न वो बुरी है और न मैं. इतना प्यार होने के बावजूद न उसने अपना परिवार छोड़ा न मैंने.... तो हैं न. हम स्वार्थी नहीं है. बस एक चकवा-चकवी हैं जो कभी मिल नहीं पाते....

मुझको मालूम है, इश्क मासूम है
दिल से हो जाती हैं गलतियां
सब्र से इश्क महरूम है....
(शेष अगले अंक में)

सोमवार, 27 सितंबर 2010

तेरे दिल की बात मैं जानूं

तेरे दिल की बात मैं जानूं

यकीन मानिए सच ही है ये

लंदन. कई साल पहले एक विज्ञापन आया था, जिसमें एक पत्नी अपने पति से कहती थी, तेरे दिल की बात मैं जानूं. पत्नी की पति से कही ये पंक्तियां अगर आपको झूठ लगती हों तो एक बार फिर सोच लीजिए.

अब तो वैज्ञानिकों ने भी साबित कर दिया है कि पति और पत्नी के दिल को दिल से राह होती है और दोनों एक-दूसरे के दिल की बात पहले से जान जाते हैं.

सिडनी यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोेलॉजी के वैज्ञानिकों ने अपने शोध में पाया है कि कुछ जोड़ों के मस्तिष्क एक-दूसरे के साथ तारतम्यता में काम करने लगते हैं और उनके तंत्रिका तंत्र के कई भाग एक-दूसरे के साथ सामंजस्य बिठा लेते हैं.

वैज्ञानिकों ने इसके लिए 30 लोगों के मस्तिष्क और दिल की धडक़न का अध्ययन किया. उन्होंने पाया कि जो जोड़े मानसिक तौर पर एक-दूसरे के बहुत करीब थे, bhale ही शारीरिक तौर पर उन्हें दूर रखा गया हो, उनके मस्तिष्क की गतिविधियों में एकरूपता थी."

डेली मेल की खबर में कहा गया है कि इसका मतलब ये है कि वे ऐसी स्थिति में पहुंच चुके थे, जिसमें दोनों के तंत्रिका तंत्र बिल्कुल एक-तरह से काम करते थे और दोनों बिना बोले ही एक दूसरी की भावनाएं और विचार जान जाते थे.

बुधवार, 1 सितंबर 2010

मौनी गुड़िया फिर मौन

तड़प तड़प के इस दिल से आह निकलती रही

तो मौनी गुड़िया फिर मौन हो गई है. उसका मौन यानी मेरी फजीहत... सच कहूं थोड़ी प्राइवेसी भी मिल जाती है. लेकिन अपनी हालत तो इस गाने की तरह ही हो जाती है. मौनी गुड़िया का पिछला एपीसोड काफी पसंद किया गया था. वैसे, अलगाव में दम तो है क्योंकि मुझे भी लिखने की इच्छा तभी होती है जब गुड़िया मौन हो जाती है यानी रूठ जाती है... तो गम के अंधेरे में डूबा ये आशिक ये गाना सुन रहा है.

सन १९९९ में रिलीज हुई फिल्म हम दिल दे चुके सनम- का ये गाना है. इस्माइल दरबार ने इसे बखूबी संगीतबद्ध किया है. महबूब के लिखे इस कलाम को केके ने अपनी आवाज दी है. इस गाने में के के की आवाज का जादू तो है कि इसके बोल भी कहीं न कहीं आज की भागमभाग वाली जिंदगी में आम इंसान की हकीकत को बयां करते हैं.

इश्क में लुटने की बात पर हो सकता है कुछ लोगों को हंसी आए. क्या बेवकूफी है.... है न... लेकिन इश्क, प्रेम, मोहब्बत जैसे अल्फाज मनुष्य की जिंदगी से जुदा नहीं हो सकते हैं. हिंदी पढ़ते हुए हम व्याकरण में ९ रसों का उल्लेख पाते हैं. प्रेम प्रकृति का अटूट अंग है. अध्यात्म में मोह से जुदा होने की बात कही गई है. लेकिन ईश्वर से, प्रकृति से, प्राणियों से प्रेम करने की भी ताकीद है.

अब जबकि प्रेम को अनिवार्य अंग मान लेते हैं, तो फिर इश्क ने हमें निकम्मा कर दिया, वर्ना हम आदमी थे काम के, जैसी पंक्तियां शायरों ने ठीक ही लिखी हैं. दरअसल, अति सर्वत्र वर्जयेत। यानी प्रकृति के संतुलन के बीच किसी भी चीज की अति नहीं होनी चाहिए. वो कोई भी रस हो, कोई भी भाव हो या फिर कोई भी कृत्य हो. अब इस गाने पर आते हैं। महबूब साहब लिखते हैं-

बेजान इश्क़ को तेरे इश्क़ ने ज़िन्दा किया
फिर तेरे इश्क़ ने ही इस दिल को तबाह किया


एकदम सही। जब उम्र की ढलान पे या फिर किसी के चोट पहुंचाने पर इश्क बेजान हो चला था, उसके इश्क ने इश्क के जज्बे को फिर जिंदा कर दिया. और फिर उसके ही इश्क ने दिल को तबाह कर दिया. आखिर ऐसा क्यों... हो सकता है इश्क का तूफान वास्तविकता के धरातल से दूर चला गया हो... हो सकता है इश्क के आवेश ने प्रेमी या प्रेमिका से अपेक्षाएँ बढ़ा दी हों... हो सकता है इश्क ने मिलन की आग भड़का दी हो, जो संभव न हो और जिससे दिलोदिमाग पर अधूरापन छा गया हो... इस अधूरेपन ने असंतोष को बढ़ाया हो... यानी बात घूमफिर असामान्य मानसिक स्थिति पर पहुंच जाती है....
गीत में आगे लिखते हैं-

तड़प तड़प के इस दिल से आह निकलती रही
मुझको सज़ा दी प्यार की ऐसा क्या गुनाह किया
तो लुट गए हां लुट गए
तो लुट गए हम तेरी मोहब्बत में


सच है ऐसे समय यदि असंतोष चरम पर पहुंच जाए तो सोचने की क्षमता भी समाप्त हो जाती है. फिर यही लगता है कि ऐसा क्या गुनाह किया कि हम तेरी मुहब्बत में लुट गए.

अजब है इश्क़ यारा पल दो पल की ख़ुशियाँ
गम के खज़ाने मिलते हैं फिर मिलती हैं तन्हाईयां
कभी आँसू कभी आहें कभी शिकवे कभी नाले
तेरा चेहरा नज़र आए मुझे दिन के उजालों में
तेरी यादें तड़पाएं रातों के अंधेरों में
तेरा चेहरा नज़र आए
मचल मचल के इस दिल से आह निकलती रही
मुझको सज़ा दी ...

सच में अजब है इश्क यारा.... पल दो पल की खुशियां मिलती हैं और फिर गम का खजाना. अगर गौर किया जाए तो खुशियों का भी खजाना ही होता है. इसलिए खुशियों को पल दो पल की मानना गलत है. एकदम गलत. खुशियों का भी खजाना है. अब गुड़िया फिर मौन हो गई है तो इसे मैं क्या समझूं. गमों का खजाना..... गलत. फिर उसने जो मुझे खुशियों के पल दिए उनका क्या..... जहां तक चेहरा नजर आने की बात है तो सच है... वो तो नजर आता ही है. दिन का उजाला हो या फिर रात का अंधेरा... उसका चेहरा तो नजर आता ही है. वैसे कई दुष्टों का चेहरा भी नजर आता है लेकिन उनके बीच गुड़िया का चेहरा सुकून देता है.....

अगर मिले ख़ुदा तो पूछूंगा ख़ुदाया
जिस्म दे के मिट्टी का शीशे सा दिल क्यूं बनाया

एकदम सच। वाकई अगर खुदा मिला तो जरूर पूछुंगा कि मिट्टी का जिस्म बना के आपने दिल शीशे का क्यों बनाया है. लेकिन जब ठंडे दिमाग से सोचता हूं तो यह पाता हूं कि अगर दिल को सीसे का नहीं बनाता तो इश्क होता ही नहीं. दिल कमजोर है इसीलिए तो ये पंक्ति है- गम के खज़ाने मिलते हैं फिर मिलती हैं तन्हाईयां. दिल को मजबूत बनाने की कोशिश करना भी बेकार है. हां, कमजोरी दूर होनी चाहिए... नहीं तो फिर मानसिक बीमारी... लेकिन अगर दिल ज्यादा मजबूत यानी कठोर हो गया तो इंसान निष्ठुर हो जाएगा. क्या आप चाहें कि कोई आपको निष्ठुर या बेदर्द कहे. नहीं न.... वैसे कठोरता होनी भी नहीं चाहिए. क्योंकि मनुष्य सामाजिक प्राणी है. समाज के प्रति संवेदनशीलता जरूरी है. नहीं तो आप मनमौजी हो जाएंगे और अति हुई तो अपराधी भी बन सकते हैं.....

और उस पे दी ये फ़ितरत के वो करता है मोहब्बत
वाह रे वाह तेरी क़ुदरत उसपे दे दी ये क़िस्मत
कभी है मिलन कभी फ़ुरक़त
है यही क्या वो मुहब्बत
वाह रे वाह तेरी क़ुदरत
सिसक सिसक के इस दिल से आह निकलती रही
मुझको सज़ा दी ...


सिसक-सिसक के दिल आह तो निकलती है लेकिन वो हाय नहीं होती. क्योंकि इश्क सच्चा है. शाश्वत है. यथार्थ है. तो देखते हैं मौनी गुड़िया के इस एपीसोड का अंत क्या होता है. वाकई कुदरत का खेल निराला है... इस पर मैं लिखता हूं...

न वो है बेवफा और न हम,
फिर भी टूट जाते हैं सनम....।

सोमवार, 16 अगस्त 2010

लम्हा-लम्हा... चलते-चलते...


लम्हा-लम्हा चलते-चलते पता नहीं ऐसा क्यों होता है इस जिंदगी में. क्यों खबर बेखबर सा मुझे सब कुछ खतम करने पर मजबूर होना पड़ता है. क्या मेरी सोच ही गलत है. या फिर यही जिंदगी है. हरेक की जिंदगी की दशा और दिशा अगल-अगल है. क्यों कभी-कभी ऐसा लगता है कि इस दुनिया में सब कुछ झूठा है. सब कुछ एक ढोंग है. इसमें इन्सानियत, सचाई, गुमराह न करना, अपने कार्य के प्रति समर्पण, सिंपल लीविंग एंड बिग थिंकिंग जैसे अल्फाजों की कोई अहमियत नहीं है.
हो जाता कुछ ऐसा घटित जब अपनी सतर्कता न रहने या किसी भी दो कौड़ी के लोगों पर भरोसा कर लेने के कारण बेइज्जत होना पड़ता है. अपने काम में कुशलता का खामियाजा हमेशा ही कुछ इस तरह से भुगतना पड़ता है कि कुछ सहयोगी अपने अहं की तुष्टि के लिए कुछ लोगों को मोहरा बनाते हैं और लांछित करने का प्रयास करते हैं. वो तो मैं सोचता हूं कभी-कभी कि गनीमत है कोई दुराचरण की श्रेणी की गलती नहीं की. नहीं तो ऐसे मौकों पर अहं की तुष्टि करने वाले तुच्छ लोग तो जिंदा ही दफना दें. फिर ऐसे समय लगता है कि विफलताओं के लिए ईश्वर को कोसने से कोई फायदा नहीं. क्योंकि उसने मुझे दुराचरण की श्रेणी वाली गलतियों से बचा कर रखा.
वैसे, हर एपीसोड में एक बात तो साफ रहती है कि जसा दिसते, तसा नसते- अर्थात जैसा दिखता है, वैसा नहीं रहता. मुझे तो इंट्यूशन भी भेजता है भगवान. मुझे कुछ अनहोनी की आशंका उसी समय हो जाती है जब मैं कोई गलती करने के करीब होता हूं. या बिना गलती के कुछ होना होता है. बिना गलती के तब होता है जब किसी का अहं टकराता है या फिर कोई उच्चाधिकारी चमचों की फौज से गुमराह हो जाता है. अब सोचता हूं कि चमचागिरी शुरू कर दूं.
सबकी हां में हां मिलाना. किसी के अहं को चोट न पहुंचाना. किसी को सलाह न देना. क्योंकि मेरा व्यक्तिगत अनुभव यही कहता है कि अनहोनी की आशंका के बावजूद होनी होकर रहती है. इसी प्रकार किसी का सही मार्गदर्शन भी गलत है. क्योंकि जो होना है, वह तो होकर ही रहेगा. फिर क्यों किसी को सम्भावित खतरे के प्रति आगाह करना.
सब पागलपन है. फिर कई बार कबीर दास जी की ये पंक्तियां याद आ जाती हैं-
कबीरा खड़ा बाजार में
मांगे सब की खैर
ना काहू से दोस्ती
ना काहू से बैर!
लेकिन सच कहूं. दोस्ती अपनी जगह बरकरार रहती है. हालांकि मेरे मामले में बैर ज्यादा दिन टिकता नहीं लेकिन बैर है कि होता ही है. अब जो कोई किसी का दिल दुखाएगा, उसे तकलीफ तो होगी ही ना. एक को अभी होती है और दूसरे को बाद में. मगर, विघ्न संतोषियों का चमत्कार ज्यादा दिन नहीं चल पाता है. उन्हें एक न एक दिन रसातल में जाना ही पड़ता है.
अब ये बात अलग है कि नेता मंत्री बन के भी वहीं रहते हैं. क्योंकि उन्हें ईश्वर ने राजनीति करने को ही भेजा है. और राजनीति में साम, दाम, दंड, भेद तो चलता ही रहता है. लेकिन जो राजनीति में नहीं है, वो भी वही सब करता है तो लगता है कुछ गलत हो रहा है.
लेकिन क्या सच में ये कलयुग है..... तो क्या हमने शैतान बन के जीना चाहिए.... प्रश्न अनुत्तरित है. खोज जारी है.....

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

6 Signs of Sixth Sense

We all have psychic sensitivity, but is yours above the norm? Even if you don’t pick winning lottery numbers every week, you may be one of those not-so-rare people who have, and can enhance, their innate psychic skill.
Let’s consider six signs that might mean you should polish your sensitivities and talents:
1. You’re more than casually tuned in to energies. You feel a pressing need to call a friend. You find out the friend needs help or was thinking about you. When your phone rings, you know who’s calling. If you seem totally tuned in, you might want to start a journal to track your “coincidences.”
2. You score well on the Zener test. In the 1930s, psychologist Karl Zener created a set of cards to test ESP. Though some experts criticize the test, it can measure strong clairvoyant skill. Read more about it or experiment with the online Zener test. Very high scores are noteworthy.
3. You see beyond visual cues. If you lose your keys, can you mentally envision where they are? Are you right most of the time? Do you know what someone is doing even when you’re away from them? Can you enter a building and perceive specific images of events that happened in the past, or feel events of the future with clarity?
4. You’re more tuned in to your body, mind, and soul than most people are. You knew, without a doubt, that you were pregnant before you took a test. Perhaps you know exactly what your body needs when things don’t feel right. You sometimes think you see hints of color around various parts of your body, and you know when there’s something you must do about them.
5. You sometimes feel unexplainably unwell, maybe nauseated. Later, you’ll learn something major happened to a loved one. I’ve tracked this for years, and it’s unfailing. I knew when my uncle passed. When my son was in a hurricane, I felt his peril. Notice your physical reactions. Note how often they connect to incidents you weren’t aware of. Are you like me?
6. You body/mind/soul energy is extraordinarily positive. When trouble looms, or you feel blue, or it’s a terrible day, you see beyond that. You understand completely that we must experience negatives in order to appreciate positives. You feel sad or down sometimes, like everyone else, but it just never leaves you permanently marked. You feel uplifted most of the time.

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

अचेतन मन खोलता है अनन्त रहस्यों के द्वार

- योगी गुलशन कुमार

मनुष्य चेतन और अचेतन दो मन की शक्तियों से कार्य करता है. चेतन मन की शक्ति सीमित हैं जबकि अचेतन मन की शक्तियां असीमित हैं. विश्व में आज हिंसा, डर, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, असुरक्षा और बदले की जो भावना दिखाई देती है. उसकी वजह अचेतन में छिपे नकारात्मक विचार हैं.

व्यक्ति जब इन नकारात्मक विचारों को अचेतन मन में ही दबाकर रखता है और उन्हें बाहर निकलने का रास्ता नहीं देता है तो शरीर की रासायनिक प्रक्रिया को विषाक्त करके तनाव, चिंता, हृदय रोग, अल्सर आदि रोगों के रूप में ये शरीर में प्रकट होने लगते हैं. आज प्रत्येक व्यक्ति नकारात्मक सोच से खुद को नुकसान पहुंचा रहा है. क्रोध के बाहर निकलते आवेग को न जाने कितने बार उसने दबाया है.

चेतन मन की शक्ति बारह प्रतिशत से ज्यादा नहीं है जबकि अचेतन मन 88 प्रतिशत शक्ति रखता है. मनुष्य केवल चेतन मन की शक्ति से काम लेता है. यदि वह योग गुरुओं से अचेतन मन की शक्ति का का प्रयोग करने की विधि सीख लेता है तो अनन्त उपलब्धियां उसके कदमों को चूम सकती हैं.

अचेतन मन न तो कभी सोता है और न ही आराम करता है. दिल की धड़कन, रक्त संचार, पाचन और उत्सर्जन क्रिया में उसी की भूमिका रहती है. अचेतन मन में ध्यान प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन की जो तस्वीर उतारता है, उसी तरह की घटनाएं हमारे जीवन में होने लगती हैं.

व्यक्ति को ध्यान साधना के जरिए जब चेतन से अचेतन की यात्रा कराई जाती है, तो योग गुरु उसे अचेतन मन में सदैव सकारात्मक सोच ले जाने का निर्देश देते हैं. जैसे- मेरा शरीर सदा निरोगी रहे, जीवन में समृद्धि आए... आदि. अचेतन मन को जो भी निर्देश दिए जाते हैं, उसे वह तुरन्त स्वीकार कर लेता है.

अचेतन मन में असीमित ज्ञान और बुद्धिमत्ता है. इस पर अच्छे या बुरे, जिस भी विचार की छाप व्यक्ति छोड़ता है, वह साकार होकर उसके जीवन में आने लगता है. इसलिए व्यक्ति को हमेशा सकारात्मक विचारों की छाप ही अचेतन मन पर छोड़नी चाहिए. चिंता, डर, तनाव और निराशा हृदय, फेफड़ों, आमाशय और आंतों की सामान्य कार्यप्रणाली की गति को बाधित करते हैं. तनाव पैदा करने वाले विचार अचेतन मन के सांमजस्यपूर्ण कार्य में बाधा डालते हैं.

प्रत्येक व्यक्ति का जीवन उसके विचारों की प्रकृति के अनुरूप प्रवाहित होता है. सकारात्मक विचारों से अचेतन मन की नकारात्मकता के विचार मिट जाया करते हैं और उपचारक शक्ति स्वास्थ्य, सुख और शांति के रूप में व्यक्ति के शरीर में प्रवाहित होने लगती है. स्वास्थ्य के विचारों को अचेतन में प्रवाहित करके मनचाहा स्वास्थ्य अर्जित किया जा सकता है.

यदि कोई मनुष्य पूरे शरीर को शिथिल करके प्रतिदिन पांच से दस मिनट तक ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहे- हे ईश्वर, तुम्हारी पूर्ण शक्ति मुझमें समा रही है, यह ऊर्जा यानी शक्ति मेरे अचेतन मन में भरती जा रही है, तुमने जो स्वस्थ शरीर मुझे दिया था, वैसा ही रोगरहित शरीर मुझे फिर से प्राप्त हो. इस स्वस्थ विचार को ग्रहण करने से अचेतन मन की शक्ति अपना कार्य शुरू करके रोग को अच्छा करना शुर कर देती है. सबसे अच्छा तो यह है कि व्यक्ति आंखें बंद करके अपने स्वस्थ शरीर की तस्वीर या स्वयं के स्वस्थ शरीर को देखने का प्रतिदिन अभ्यास शुरू कर दे तो इसके परिणाम कुछ ही दिनों में व्यक्ति को दिखाई देने शुरू हो जाएंगे.

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

अब तक का मानसून का हाल अच्छा

कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था के लिए यह अच्छी खबर है कि महाराष्ट्र में इस साल मानसून पूरे जोश के साथ सक्रिय हुआ. जून माह में पिछले साल की तुलना में दोगुनी बारिश हुई जो राज्य के सामान्य औसत के मात्र दो फीसदी कम अर्थात ९८.२ प्रतिशत रही. राज्य में सबसे कम बारिश मराठवा‹डा के नांदे‹ड और परभणी जिले में हुई. विदर्भ में माह के अंतिम दो सप्ताह में अच्छी बारिश हुई. मध्य व पश्चिम महाराष्ट्र में पूरे महीने मेघ जमकर बरसते रहे.
राज्य में अब तक औसतन २१८.१ मिमी बारिश हो चुकी है जो सामान्य (२२२.१) की ९८.२ फीसदी है. पिछले साल हालात खराब थे. जून २००९ में मात्र १०१.४ मिमी बारिश ही हुई थी जो सामान्य की ४५.६ फीसदी थी.
इस साल मानसून ने शुरुआती आंखमिचौली के बाद अपनी कृपा बनाए रखी. चक्रवाती तूफान लैला के कारण समय पूर्व आने की मानसून की भविष्यवाणी हालांकि गलत साबित हुई लेकिन कुछ देर से ही सही मगर मानसून पूरी शिद्दत के साथ राज्य में सक्रिय हुआ. औसत के आधार पर राज्य में मानसून का प्रवेश ५ से १० जून के बीच होता है. १० जून तक मुंबई और मराठवा‹डा के बाद १२ से १५ जून के बीच इसे सम्पूर्ण राज्य में सक्रिय हो जाना चाहिए. इस साल लैला के कारण मानसून शुरुआती दौर में शिथिल प‹ड गया था और इसने थो‹डा विलंब यानी १० जून को राज्य की सीमा में प्रवेश किया. मराठवा‹डा के बाद फिर एक बार फिर मानसून शिथिल प‹डा और विदर्भ में लगभग एक सप्ताह की देरी से माह के तीसरे सप्ताह पहुंचा. लेकिन इसके बाद बारिश ने विदर्भ में पूरे महीने की कसर निकाल ली.
ठाणे, रत्नागिरी, qसधुदुर्ग, पुणे, अहमदनगर जिले में तो कमोबेश रोज ही बारिश ने अपनी उपिस्थिति दर्ज कराई. ठाणे में ९१.१, रत्नागिरी में १०५.३, qसधुदुर्ग में ११०.२, नासिक ११९.२, अहमदनगर १६६.७, पुणे १५१.५, सोलापुर १४३.१ प्रश बारिश हुई जो सामान्य से अधिक रही. सिर्फ नांदे‹ड और परभणी जिलों में सामान्य से काफी कम क्रमशः ५०.५ व ५५.६ फीसदी बारिश दर्ज की गई. अपेक्षा के विपरीत ग‹डचिरोली जिले में भी मात्र ६७.७ फीसदी बारिश हुई. इन जिलों के अलावा विदर्भ व मराठवा‹डा में भी एक पखवा‹डे के बाद मेघों ने अपनी कृपा बनाई. मराठवा‹डा के औरंगाबाद और बी‹ड जिलों में क्रमशः १३४.२ और ११३.४ फीसदी वर्षा रिकार्ड की गई. विदर्भ में सबसे अधिक मेहरबानी बुलढाना और वाशिम जिलों में हुई जहां का औसत क्रमशः १२१.९ व ११९.१ प्रतिशत रहा. मराठवा‹डा के लिए यह सुकून की बात रही कि नासिक में वरुण देवता का आशीर्वाद अब तक बना हुआ है. यहां सामान्य से अधिक ११९.२ फीसदी बारिश हुई है. नासिक में औसतन १५४.२ मिमी बारिश होनी चाहिए लेकिन इस साल अब तक १८४.१ मिमी बारिश हो चुकी है. शेष महाराष्ट्र में जलगांव को ही बारिश के लिए तरसना प‹डा. यहां सामान्य की अपेक्षा सिर्फ ६९.४ और नंदुरबार में ७३.४ फीसदी बारिश हुई. सातारा में सामान्य से दोगुनी २०४ फीसदी बारिश हुई. राज्य के अन्य हिस्सों में सामान्य के आसपास ही बारिश दर्ज की गई.

सिर्फ छह जिलों में कम वर्षाराज्य के सिर्फ चार जिलों परभणी, नांदे‹ड, जलगांव, नंदुरबार, ग‹डचिरोली व चंद्रपुर में सामान्य से कम बारिश हुई. विदर्भ, मराठवा‹डा में मानसून सामान्य रहा जबकि शेष महाराष्ट्र में मेघ जम कर बरसे. नांदे‹ड में मात्र ५०.५, परभणी में ५५.६, जलगांव में ६९.४, नंदुरबार ७३.४, ग‹डचिरोली ६७.७ और चंद्रपुर में ७५.६ फीसदी बारिश दर्ज की गई.

बुधवार, 23 जून 2010

क्या फिर विकल्पहीन हो रहा है देश

क्या फिर विकल्पहीन हो रहा है देश
देश की वर्तमान राजनीतिक दशा व दिशा ने एक बार फिर विकल्प शून्यता की स्थिति उत्पन्न कर दी है. इसके साथ ही देश एक बार फिर उन्हीं इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के काल में पहुंच रहा है जहां उनकी सत्ता को कोई चुनौती नहीं थी. भारतीय राजनीति के लिए इसस बड़े शर्म की बात और क्या हो सकती है कि यहां भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सामने कोई भी राजनीतिक दल सशक्त चुनौती बनकर खड़ा होने की स्थिति में नहीं है.
वाम दल तो, अपेक्षा के अनुरूप अपने सबसे बड़े विध्वंस की ओर अग्रसर हैं. अब अपेक्षा भारतीय जनता पार्टी से ही हो सकती है. लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव के समय से ही जिस प्रकार भाजपा मुद्दाविहीन पार्टी बनते जा रही है, उससे फिर एक बार कांग्रेस की विकल्पहीन सत्ता की आशंका पैदा हो गई है. भारतीय जनता पार्टी इन दिनों विरोध तो करती है, मगर एक त्यौहार या अवसर के रूप में. एक ऐसा अवसर जो साल में एक-दो बार आता है, रात गई-बात गई की तर्ज पर गायब हो जाता है.
समस्याओं की नहीं है कमी
ऐसा नहीं है कि देश में सब कुछ ठीक चल रहा है. ऐसा भी नहीं है कि देश में कोई समस्या नहीं, मुद्दा नहीं. भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद नितिन गडकरी से काफी अपेक्षाएं जनमानस को हैं. लगता है गडकरी भी अब दिल्ली के राजदरबार के खिलाड़ी बनते जा रहे हैं. जिस युवा और विकासोन्नमुख दृष्टिकोण के लिए गडकरी जाने जाते हैं, वह कमोबेश अब तक उनकी करनी में नहीं दिखा है. लगता है आम चुनाव के पहले अपने कार्यकाल का पहला चरण गडकरी दिल्ली दरबार में अपनी उपिस्थिति मजबूत करना चाहते हैं. लेकिन इस बीच मुद्दाविहीन और चेतनाविहीन एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं को, समर्थकों को निराश जरूर कर रहे हैं. हां, टीवी चैनलों पर अपने इंटरव्यू में जरूर गडकरी अपनी विकासपरक राजनीति की वकालत करते सुने जा सकते हैं. यानी गडकरी ने भी वही शुरू किया है जो अमूमन दिल्ली के नेता करते हैं... वो है मीडिया की राजनीति. महंगाई का मुद्दा हो या नक्सलवाद का हर जगह भाजपा बैकफुट पर ही खड़ी दिखाई देती है. आतंकवाद, परमाणु संशोधन, भोपाल गैस त्रासदी जैसे मामलों में भी विपक्ष कहीं दिखाई नहीं दिया.
राहुल का तो विकल्प ही नहीं दिखता....
यह सच है, एकदम अकाट्य सच कि आज भारतीय राजनीति में राहुल गांधी के युवा व्यक्तित्व का जवाब कहीं दिखाई नही देता है. गड़करी की तुलना राहुल गाधी के व्यक्तित्व से नहीं की जा सकती है. दोनों के जनाधार, दोनों की कार्यप्रणाली, दोनों के व्यक्तित्व, दोनों की पार्टियों की विचारधारा हर जगह जमीन-आसमान का अंतर है. ऐसे में यह देखना मजोदार होगा कि भाजपा किस प्रकार राहुल के युवा व्यक्तित्व का सामना करती है.
(जारी...)

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

नक्सलवाद यानी पैसा, हथियार और सेना यानी लूट, सौदा और दहशत

नक्सलवाद
यानी
पैसा, हथियार और सेना
यानी
लूट, सौदा और दहशत
पिछले चार दशकों में नक्सलियों और अब माओवादियों ने जनांदोलन से ऊपर उठते हुए सश क्रांति के नाम पर किसी देश की फौज की तर्ज पर अपना ढांचा खड़ा कर लिया है। मतलब साफ है कि बाकायदा सेना की संरचना तैयार करने के लिए उन्हें धन, मानवबल और हथियारों की आवश्यकता होती है। हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ में जब्त हथियारों से यह बात साफ हो गई है कि नक्सली न सिर्फ विदेशी हथियार इस्तेमाल करते हैं बल्कि उनके संपर्क सूत्र हमारे देशकी आयुध निर्माणियों तक भी फैले हुएहैं। गत वर्ष छत्तीसगढ़ के जशपुर में हथियारों से भरा ट्रक पकड़ाया था, उसमें हथियार आर्डिनेंस फैक्टरी, पुणे के भी थे। इससे अब यह धारणा पुरानी हो चली है कि नक्सली लुटे हुए हथियारों पर ही निर्भर रहते हैं। एक नया तथ्य सामने आया है कि इस वामपंथी उग्रवाद का प्रत्येक समूह अन्य चीजों के अलावा हथियार खरीदने के लिए लाखों रुपये खर्च करता है। केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों द्वारा चलाए गए अभियानों के दौरान हाल ही में उग्रवादियों के जब्त रिकॉर्ड से खुलासा हुआ है कि नक्सली लेवी, फिरौती और धमकियों के जरिये सालाना करोड़ों रुपये जुटाते हैं। केंद्रीय सुरक्षा एजेंसी के अधिकारियों ने बताया कि नक्सलियों की अपनी कारपोरेट शैली में अकाउंटिंग पद्धति है। इनके दलम में आम तौर पर 20 से 40 सदस्य होते हैं और ये दल अपने क्षेत्रीय कमांडर को छमाही आधार पर अपनी आय और खर्च का ब्योरा देते हैं। ये ब्योरा इससे ऊपरी स्तर पर पहुंचाया जाता है। बताया जाता है कि हथियार खरीदने पर किए गए खर्च का लेखा-जोखा अलग से रखा जाता है। नक्सलियों का वर्चस्व देश के 40 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है जिसे रेड कॉरिडोर के नाम से जाना जाता है। जानकारों के मुताबिक इस रेड कारिडोर से प्रतिवर्ष नक्सलियों को 16 000 करोड़ रुपयों की आय होती है। नक्सलियों के पास धन इसकी उप समिति और क्षेत्रीय समिति से आता है। आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक नक्सली विदेश निर्मित विशेष रूप से चीन और अमेरिका द्वारा निर्मित हथियारों का ही ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। बिहार, झारखंड और आंध्रप्रदेश के माओवादी चीन सहित विदेशी छोटे हथियारों का इस्तेमाल करते हैं जबकि पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के नक्सली स्थानीय हथियारों से ही काम चलाते हैं। सूत्रों का कहना है कि रूस निर्मित एके सीरिज की बंदूकें माओवादियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं। सुरक्षा बलों ने नक्सलियों के कब्जे से एके-47, एके-56, पाकिस्तान निर्मित पीका गन और इजराइली स्नाइपर गन बरामद किए हैं। सूत्र बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के जवानों पर किए गए हमले में नक्सलियों ने आंध्र प्रदेश और उड़ीसा के पुलिस बल से चुराए गए हथियारों का इस्तेमाल किया था। सूत्रों के मुताबिक घटनास्थल के सर्वे से लगता है कि हमले में इस्तेमाल किए गए दो एलएमजी आंध्र प्रदेश के पुलिस बल या फिर उड़ीसा के पुलिस बल से चुराए गए थे। सूत्रों के मुताबिक पापा राव की अध्यक्षता वाली माओवादियों की केन्द्रीय समिति की कंपनी 3 और कंपनी 8 ने इनका इस्तेमाल किया था। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के अब तक के सबसे घातक हमले के बारे में ‘कुछ गलती’ होने की बात स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार ने इस घटना की जांच कराने की घोषणा तो कर दी है। लेकिन गृहमंत्री ने इन खबरों को गलत बताया कि हमले में प्रेशर बमों का इस्तेमाल किया गया था और स्थानीय पुलिस को सीआरपीएफ के ऑपरेशन की जानकारी नहीं थी। उन्होंने कहा हमले में शहीद 76 जवानों के सभी हथियार नक्सली अपने साथ ले गए। चिदंबरम का मानना है कि नक्सली सीमा पार से हथियार खरीदते हैं। सीमापार हथियारों के बाजार हैं। उन्होंने नेपाल, म्यांमार और बांग्लादेश के साथ भारत की खुली सीमा का जिक्र किया। नक्सलियों के वित्तीय स्रोतों के बारे में पूछे जाने पर गृह मंत्री ने कहा कि वे बैंक लूटते हैं और अपने इलाके की खनन कंपनियों से वसूली करते हैं।
सीआरपीएफ-पुलिस में तालमेल का अभाव
सीआरपीएफ के आला अधिकारी भले ही यह बयान दे रहे हों कि अब राज्य पुलिस के साथ बेहतर तालमेल किया जाएगा। लेकिन इस संबंध में पुराना अनुभव कुछअच्छा नहीं है। केंद्रीय सुरक्षा बल इन इलाकों में अपनी डफली अपना राग अलापते नजर आते हैं। हालयिा दिनों में सीआरपीएफ ने कुछ कोशिशें ग्रामीणों के बीच अपनी विश्वसनीयता बनाने के लिए की थीं लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। यही कारण है कि नक्सली सबसे अधिक राज्य के विशेष पुलिस अधिकारियों से खौफ खाते हैं। यही कारणहै कि सलवा जुडूम और एसपीओ का नक्सलियों के हमदर्द पुरजोर विरोध करते हैं। सीआरपीएफ के जवान तो इन नक्सलियों के लिए सबसे आसान टार्गेट माने जाते हैं। छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन का कहना है कि ‘दंतेवाड़ा मामले में सीआरपीएफ को भारी क्षति इसलिए पहुंची क्योंकि जवान जमीनी स्थिति का आकलन नहीं कर पाए। वे मुठभेड़ स्थल का अनुमान नहीं लगा पाए और जाल में फंस गए। हम आपरेशन ग्रीन हंट को अब अधिक मुस्तैदी से चलाएंगे।
नक्सलियों को धन मुहैया कराते एनजीओ
एक ओर प्रदेश स्तर से लेकर केंद्रीय सरकार नक्सलियों पर नकेल कसने की बात करती है, लेकिन विभिन्न एनजीओ के माध्यम से विदेशों से मिलने वाले धन के बल पर नक्सली अपने मंसूबों को पालने में सक्षम हो रहे हैं। हालिया घटनाक्रम में इस प्रकार के संकेत मिल रहे हैं कि नक्सली संगठनों को विदेशों से पैसा मिल रहा है और उसका माध्यम कई गैर सरकारी स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) हैं। जानकारों का कहना है कि कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा जनजातियों के कल्याण के नाम पर लिए जा रहे विदेशी धन का कुछ हिस्सा नक्सलियों के पास पहुंच रहा है। जाहिरतौर पर कोई भी संगठन बगैर आर्थिक मदद के नहीं चल सकता। सो, नक्सली संगठनों को भी विदेशों से धन मिलना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता। केंद्र और राज्य सरकार की मदद से चलने वाली ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसी योजनाओं का धन भी सीधे-सीधे नक्सलियों के पास पहुंचता है। यही कारण है कि इंद्रावती नेशनल पार्क जैसे धूर नक्सली इलाके में टाइगर कंजर्वेशन के नाम पर आबंटित करोड़ों की राशि कहां जाती है, किसी को पता नहीं है। सरकारें देश के दुर्गम इलाकों तक अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन की बात करती हैं लेकिन जब नक्सलियों के कब्जे वाले दुर्गम आदिवासी इलाकों में जाकर स्थिति का पता लगाया तो मामला वही ढाक के तीन पात ही नजर आता है। यानी विकास कार्यों पर खर्च की गईराशि कहां चली जाती है, इसका कोई पता नहीं। हां, कागजात जरूर तैयार रहते हैं। जानकार बताते हैं कि ग्राम पंचायत स्तर पर खर्च होने वाली राशि का 8 0 फीसदी सीधे नक्सलियों के पास पहुंच जाता है।
वाम दल यानी हाथी के दांत
नक्सली वारदातों से यह साफ हो गया है कि वामपंथियों के खाने के दांत अलग हैं और दिखाने के अलग। सीपीएम के कर्ताधर्ता नक्सलियों से किसी भी प्रकार के संबंधों से इंकार करते हैं। सीपीएम की राष्ट्रीय कांग्रेस में इस आशय का प्रस्ताव पास हो चुका है। लेकिन क्या जमीनी हकीकत में ऐसा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि तृणमूल कांग्रेस की तरफ नक्सलियों के रूझान के कारणवामदल ज्यादा परेशान हैं। क्योंकि पश्चिम बंगाल की सत्ता जाने का सदमा झेलना सीपीएम के बस का नहीं है। इसका एक ओर उदाहरण तब सामने आया जब सीआरपीएफ जवानों की शहादत पर जहां पूरा देश गम में डूबा हुआ था वहीं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय कैम्पस में कुछ धूर वामपंथी विचारधारा वाले छात्र संगठनों ने इस नरसंहार पर जश्न मनाया। इस मसले पर विवि परिसर में छात्र संगठनों के बीच झड़प भी हो गई। दो छात्र संगठनों डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन (डीएसयू) और ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आइसा) ने सुरक्षाबलों के नक्सलविरोधी अभियान ग्र्रीन हंट के खिलाफ विवि कैम्पस में ही एक सभा का आयोजन किया। यहां नक्सल समर्थक छात्र समूह जवानों के कत्लेआम पर जश्न मना रहा था।
बंगाल की सत्ता पर पिछले तीन दशक से वाम मोर्चा काबिज है और इसी दरम्यान नक्सली गतिविधि भी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती दिखीं। पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में जब नक्सलियों का हस्तक्षेप अपनी हदें पार करने लगा तो केंद्र सरकार ने हस्तक्षेप कर ऑपरेशन लालगढ़ चलाया। इस आपरेशन में लगभग १००० जवानों को लगाया गया। काफी विवाद हुआ। लेफ्ट समर्थित बुद्धिजीवियों ने अपनी सारी बुद्धिमत्ता इस आपरेशन के खिलाफ झोंक दी। कुछ दिन बाद ही बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने अपने तथाकथित वोट बैंक को बिखरता देख पूरे ऑपरेशन पर सवालिया निशान लगा दिया। लालगढ़ को तो नक्सलियों के कब्जे से मुक्त कराया गया परन्तु सिर्फ शाबासी बटोरने तक। बाद में यह आपरेशन भी काल की भेंट चढ़ गया।

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

कांग्रेसी मायाजाल में दफ़न शास्त्री की मौत

साप्ताहिक विज्ञापन की दुनिया, नागपुर के १० अप्रैल के अंक में प्रकाशित

पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की मौत का रहस्य हमेशा से भारत की जनता के लिए रहस्य ही रहा है। अब यह रहस्य और गहरा गया है। भारत सरकार सुभाषचंद्र बोस और लालबहादुर शास्त्री जैसे महापुरुषों के जीवन को इतना रहस्यमय क्यों मानती है? क्या इसकी वजह यह है कि अगर रहस्य उजागर कर दिए गए तो देश का इतिहास फिर से लिखना प‹डेगा और शास्त्रीजी और नेताजी उसमें जवाहरलाल नेहरू से भी ब‹डे नायक बन कर उभरेंगे? कांग्रेस को गांधी-नेहरू वंश के बाहर का नायक पसंद नहीं है। वह तो फिरोज गांधी को भी भूल गई है जिनकी पत्नी प्रधानमंत्री बनीं, बेटा प्रधानमंत्री बना और बहू सोनिया गांधी आज की तारीख में देश की सबसे ब‹डी नेताओं में से एक हैें। कांग्रेस ने सदैव अपने आभामंडल के अनुसार ही इतिहास को तो‹डामरो‹डा है। अब लालबहादुर शास्त्री के परिवार के सदस्यों खासकर शास्त्री की बेटी सुमन qसह के बेटे सिद्धार्थ qसह ने मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत भारत सरकार से मांगी गई जानकारी को यह कहकर नहीं दिए जाने को गंभीरता से लिया है कि अगर दिवंगत शास्त्री की मौत से जु‹डी जानकारी को सार्वजनिक किया जाएगा, तो इसके कारण विदेशी रिश्तों को नुकसान और देश में ग‹डब‹डी हो सकती है।

१० जनवरी १९६६ ! अहम दिन और ऐतिहासिक तारीख ! पाकिस्तान के नापाक इरादों को हिमालय की बर्फ और थार के रेगिस्तान में दफनाने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने सोवियत संघ की पहल पर एक ऐतिहासिक कारनामे पर अपनी मुहर लगा दी। इसकी चर्चा पूरी दुनिया में फैल चुकी थी। सच मानें तो दुनियाभर के देश अचम्भित नजरों से देख रहे थे। इस अजीम शख्सियत-भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को! इस सामान्य कद-काठी और दुबली काया वाली शख्सियत में साहस का अटूट माद्दा किस कदर भरा था। इन्होंने देश की बागडोर संभालने में जिस समझदारी और दूरंदेशी वाली सूझ-बूझ का परिचय दिया, वह ऐतिहासिक है। शास्त्रीजी ने अपने जिन फौलादी इरादों से पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी वह पाकिस्तान के लिए कभी न भूलने वाला एक सबक है।शास्त्रीजी की मौत के संबंध में आधिकारिक तौर पर जो जानकारी जनता तक पहुंची है, उसके अनुसार ११ जनवरी, १९६६ को दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की मौत दिल का दौरा प‹डने से उस समय हुई थी, जब वह ताशकंद समझौते के लिए रूस गये थे। पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी ललिता शास्त्री ने आरोप लगाया था कि उनके पति को जहर देकर मारा गया है। ताशकंद में भारत-पाक समझौता करने के लिए लगभग बाध्य किए गए भारतीय प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की वहां के एक होटल में आधी रात को दिल का दौरा प‹डने से हुई मौत को भारत सरकार एक राजकीय रहस्य मान कर चल रही है।दिवंगत प्रधानमंत्री के पुत्र सुनील शास्त्री ने कहा कि दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री उनके पिता ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लोकप्रिय नेता थे। आज भी वह या उनके परिवार के सदस्य कहीं जाते हैं, तो हमसे उनकी मौत के बारे में सवाल पूछे जाते हैं। लोगों के दिमाग में उनकी रहस्यमय मौत के बारे में संदेह है, जिसे स्पष्ट कर दिया जाए तो अच्छा ही होगा।दिवंगत शास्त्री के पोते सिद्धार्थनाथ qसह ने कहा कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने देश में ग‹डब‹डी की आशंका जताकर, जिस तरह से सूचना देने से इंकार किया है, उससे यह मामला और गंभीर हो गया है। उन्होंने कहा कि हम ही नहीं, बल्कि देश की जनता जानना चाहती है कि आखिर उनकी मौत का सच क्या है। उन्होंने कहा कि यह भी हैरानी की बात है कि जिस ताशकंद समझौते के लिए पूर्व प्रधानमंत्री गए थे, उसकी चर्चा तक क्यों नहीं होती है। उल्लेखनीय है कि सीआईएज आई ऑन साउथ एशिया के लेखक अनुज धर ने सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत सरकार से स्व. शास्त्री की मौत से जु‹डी जानकारी मांगी थी। इस पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने यह कहकर सूचना सार्वजनिक करने से छूट देने की दलील दी है कि अगर दिवंगत शास्त्री की मौत से जु‹डे दस्तावेज सार्वजनिक किए गए, तो इस कारण विदेशी रिश्तों को नुकसान, देश में ग‹डब‹डी और संसदीय विशेषाधिकार का हनन हो सकता है। सरकार ने यह स्वीकार किया है कि सोवियत संघ में दिवंगत नेता का कोई पोस्टमार्टम नहीं कराया गया था, लेकिन उसके पास पूर्व प्रधानमंत्री के निजी डॉक्टर आरएन चुग और रूस के कुछ डॉक्टरों द्वारा की गई चिकित्सकीय जांच की एक रिपोर्ट है।धर ने प्रधानमंत्री कार्यालय से आरटीआई के तहत यह सूचना भी मांगी है कि क्या दिवंगत शास्त्री की मौत के बारे में भारत को सोवियत संघ से कोई सूचना मिली थी। उनको गृह मंत्रालय से भी मांगी गई ये सूचनाएं अभी तक नहीं मिली हैं कि क्या भारत ने दिवंगत शास्त्री का पोस्टमार्टम कराया था और क्या सरकार ने ग‹डब‹डी के आरापों की जांच कराई थी। सूचना के अधिकार के तहत भी इस मौत के कारणों और स्थितियों की जानकारी नहीं दी जा रही। यह नहीं बताया जा रहा कि भारत के प्रधानमंत्री के होटल के कमरे में फोन या घंटी तक क्यों नहीं थी? उनके शरीर पर नीले दाग किस चीज के थे? इस अचानक हुई मौत के बाद शव का पोस्टमार्टम तक क्यों नहीं करवाया गया? क्या समझौते के बाद देश को जय जवान का नारा देने वाले शास्त्री जी ने अपने चश्मे के कवर में एक लाइन का नोट लिख कर रखा था जिसमें लिखा था कि आज का दिन मेरे देश के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है? १९६५ की ल‹डाई में भारत ने पाकिस्तान को निर्णायक रूप से पराजित किया था और बहुत सारी ऐसी जमीन भी छीन ली थी जिस देश पर १९४७ में पाकिस्तानी घुसपैठियों ने कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि qसह के अनिर्णय का लाभ उठा कर कब्जा कर लिया था। इसमें करगिल भी था। शास्त्री जी को तत्कालीन सोवियत संघ के नेताओं ने लगभग बाध्य किया कि वे यह जमीन वापस कर दें। शास्त्रीजी करगिल कस्बे को जैसे तैसे बचा पाए थे। अपने दस्तखत से शहीद हुए सैनिकों का बलिदान निरस्त करने का दुख उनकी मृत्यु का कारण बना। पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी ललिता शास्त्री ने आरोप लगाया था कि उनके पति को जहर देकर मारा गया है।नेताजी सुभाष चंद बोस के मामले में भी भारत सरकार का रवैया लचर रहा है। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें फरार मुजरिम घोषित किया था। कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हो चुके और महात्मा गांधी की जिद का आदर करते हुए इस्तीफा देने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस का विश्वास इस बात से खत्म हो गया था कि अqहसा के जरिए अंग्रेजों को भगाया जा सकता है। उन्हें जबलपुर में जहां आज मध्य प्रदेश पर्यटन निगम का होटल कलचुरी है, के पास एक मकान में नजरबंद करके रखा गया था जहां से वे निकल भागे थे और रेलों, बसों और पैदल यात्रा करते हुए अफगानिस्तान के रास्ते रूस जा पहुंचे थे। और जर्मनी में अडोल्फ हिटलर से मुलाकात करने में सफल हुए थे। यह सच है कि हिटलर ने दुश्मन के दुश्मन को दोस्त मानते हुए सुभाष चंद्र बोस को आजाद वृहद् फौज बनाने में मदद की थी और इस फौज के प्रारंभिक सैनिक वे थे जो विश्व युद्ध में चीन के कब्जे में आ गए थे। चीन ने उन्हें रिहा कर आजाद qहद फौज का सिपाही बना दिया। इसके अलावा नेताजी की अपनी एक विश्वासपात्र कमान भी थी। नेताजी एक दिन जापान के ताईपेई हवाई अड्डे से उड़े और उसके बाद क्या हुआ इसके बारे में निर्णायक रूप से किसी को कुछ पता नहीं हैं? दस्तावेज मौजूद है लेकिन वे भारत सरकार के ताले में बंद हैं। सूचना के अधिकार के तहत भी उनकी जानकारी नहीं दी जा सकी। नेताजी के गायब होने के बारे में पहले शाहनवाज कमीशन और फिर हीरेन मुखर्जी कमीशन बिठाया गया मगर उन्हें भी यह दस्तावेज नहीं सौपे गए। सवाल पूछा जाना चाहिए कि अगर दस्तावेज नहीं देने थे तो फिर यह आयोग बिठाए ही क्यों गए थे? लालबहादुर शास्त्री के मामले में भी भारत सरकार का रवैया कुछ अलग सा है। चूंकि शास्त्रीजी के अस्तित्व को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता, भारत-पाक के निर्णायक युद्ध को खारिज नहीं किया जा सकता, इसलिए इतिहास में उनका जिक्र है। बच्चों को स्कूल में प‹ढाया जाता है कि जय जवान, जय किसान का नारा किसने दिया किन्तु स्वतंत्र भारत के निर्माण में उनकी भूमिका नेहरू के मुकाबले गौण ही मानी जाती है।
सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी
धर ने प्रधानमंत्री कार्यालय से आरटीआई के तहत यह सूचना भी मांगी है कि क्या उनकी मौत के बारे में भारत को तत्कालीन सोवियत संघ से कोई सूचना मिली थी? उनको गृह मंत्रालय से भी मांगी गई ये सूचनाएं अभी तक नहीं मिली हैं कि क्या भारत ने दिवंगत नेता का पोस्टमार्टम कराया था और क्या सरकार ने ग‹डब‹डी के आरापों की जांच कराई थी?

बुधवार, 31 मार्च 2010

दुर्लभ बीमारियां - इंतजार मौत का

दुर्लभ बीमारियां - इंतजार मौत का
भारत में कुछ दुर्लभ बीमारियों ने ज‹डें जमानी शुरू कर दी हैं। इन बीमारियों के हालात यह हैं कि कई मामलों में चिकित्सक भी जांच नहीं कर पाते हैं। जब जांच की ही यह हालत है तो फिर उपचार की बात करना भी बेमानी है। देरसवेर जब असली बीमारी का पता चलता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। और पता चलने के बाद भी उपचार इतना महंगा है कि यह आम आदमी के बस का नहीं है। अब जो लोग इस प्रकार की अनुवांशिक बीमारियों से पी‹िडत हैं, मरीज के साथ ही उनका परिवार भी परेशानियां झेलता है। परिवार का हर सदस्य कहीं न कहीं इसके कारण प्रभावित होता है। इन परिवारों के लिए qजदगी के मायने बदल जाते हैं। इन दुर्लभ बीमारियों का उपचार अगर है तो वह भी सिर्फ अमेरिका में ही संभव है। बालीवुड में भी इन दिनों दुर्लभ बीमारियों पर फिल्में बन रही हैं। आमिर खान की फिल्म तारे जमीं पर में डायस्लेक्सिक्स, अमिताभ बच्चन की फिल्म पा में प्रोगेरिया, शाहरुख खान की फिल्म माई नेम इज खान में एस्पर्जर के बाद अब रितिक रोशन की फिल्म गुजारिश का इंतजार है। गुजारिश में रितिक रोशन पैराप्लेजिक के मरीज की भूमिका में है।
दुर्लभ प्रकार की बीमारियों से इक्के-दुक्के लोग ही पी‹िडत रहते हैं। विश्वभर में ऐसी दुर्लभ बीमारियों के कुछ ज्यादा नहीं ८००० लोग ही पी‹िडत हैं। भारत में अब इनकी दस्तक से कई गंभीर प्रश्न ख‹डे हो गए हैं। सिर्फ मरीज ही नहीं वरन पूरे परिवार का सामाजिक ताना-बाना इससे बिग‹ड जाता है। निधि का सीमित संसार१० वर्षीय निधि के पिता प्रसन्ना बताते हैं कि जब उन्हें यह पता चला कि उनकी पुत्री किसी दुर्लभ बीमारी से पी‹िडत है तो उन्हें पहले तो कुछ समझ में नहीं आया। सिर्फ यही समझ में आया कि बेटी को कोई ब‹डी बीमारी हो गई है। दरअसल, इस बीमारी में मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं। बच्चों और किशोरों में लीवर ब‹डा हो जाता है और इसकी परिणति गंभीर हृदयाघात में हो जाती है और यह असामयिक मौत का कारण भी बन जाते हैं। बंगलूरु की निधि ने कभी घर के बाहर कदम नहीं रखा है। अपने उम्र के अन्य बच्चों की तरह वह अपने बचपन को व्यक्त नहीं कर सकती। कक्षा चौथी की छात्रा निधि को स्कूल तक छो‹डने उसकी मां जाती है। मां उसे पहले माले पर स्थित क्लास रूम तक छो‹ड कर आती है। निधि न तो चल पाती है और न ही ख‹डी हो पाती है। उससे मिलने सिर्फ फीजियोथेरेपिस्ट ही आता है। उसके दो दोस्त भी हैं लेकिन वे तभी निधि के साथ खेलने आते हैं जब उन्हें घर के बाहर नहीं खेलना होता है। हर रात को निधि वेंटिलेटर पर रहतीहै। वह आधा घंटे से अधिक टीवी नहीं देख पाती है। निधि दुखी स्वर में बताती है कि उसे चित्रकारी पसंद है। लेकिन एक्सरसाइज, होमवर्क, समय पर भोजन और समय पर सोने की पाबंदियों के कारण वह ड्राइंग के लिए समय नहीं निकाल पाती है। निधि यह सब कुछ एक ही सांस में कह जाती है। साफ पता चलता है कि उसे उच्चारण करने में भी परेशानी होती है। इन सबके बावजूद निधि एक डाक्टर बनना चाहती है और अपने जैसी बीमारी के बच्चों का इलाज करना चाहती है। निधि के स्कूल के शिक्षक भी उसके साथ सहयोग करते हैं। वे कभी भी उसे अलग होने या बीमार होने का एहसास नहीं होने देते हैं। निधि के पिता प्रसन्ना और मां शारदा काफी मजबूती से हालात का सामना कर रहे हैं। वे चेहरे पर मुस्कान लिए स्थिति पर काबू पाते हैं। इस दंपति की हालत यह है कि अब दूसरी संतान उत्पत्ति का खतरा मोल नहीं लेना चाहते हैं। उनका कहना है कि उन्हें डर है कि यदि दूसरी संतान भी इस प्रकार की बीमारी से ग्रस्त हुई तो दिक्कत ब‹ढ जाएगी और वे निधि पर भरपूर ध्यान नहीं दे पाएंगे। निधि एक साधारण कन्या की तरह ही पैदा हुई थी। दो साल तक जब वह चल नहीं पाई तो पिता प्रसन्ना ने एक बाल रोग विशेषज्ञ से संपर्क किया। रोग के दुर्लभ होने के कारण डाक्टर को भी नहीं पता था। सो उसने कह दिया कि कुछ बच्चे थो‹डी देर से चलना शुरू करते हैं इसलिए घबराने की कोई जरूरत नहीं है। ब‹डे अस्पताल में जांच कराने पर पता चला कि निञ्च्धि ग्लाइकोजेन स्टोरेज डिसार्डर टाइप २ से ग्रस्त है। यह बीमारी शरीर में शक्कर के एक रूप ग्लाइकोजेन के निर्माण के कारण होता है। चिकित्सकों के अनुसार यह बीमारी दिमाग को असर नहीं करती है इसलिए इसमें एंजाइम रिप्लेसमेंट थेरेपी कारगर साबित होती है। लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह कब तक जीवित रहेगी। प्रतीक-प्रदीप की भी यही कहानीदिल्ली के मंजीत qसह के दो बच्चे १९ वर्षीय प्रतीक औ़र १७ वर्षीय प्रदीप भी एक गंभीर दुर्लभ बीमारी एमपीएस-१ से पी‹िडत हैं। यह भी एक दुर्लभ अनुवांशिक बीमारी है। काफी जांच के बाद पता चला कि ये दोनों ही एमपीएस २ नाम के अनुवांशिक बीमारी से पी‹िडत हैं। मंजीत qसह अपने पुत्रों का सही तरीके से इलाज नहीं करा पाए। क्योंकि इस बीमारी में दी जाने वाली थेरेपी २ लाख रुपए प्रति आवृत्ति थी। हर पंद्रह दिनों में इसकी आवृत्ति करानी प‹डती है। इस हिसाब से उसके दोनों पुत्रों के लिए प्रति माह ८ लाख रुपए की आवश्यकता थी। पुत्रों की उम्र अधिक हो जाने के कारण उसे धर्मादाय संस्थाओं से मदद भी नहीं मिली क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संस्थाएं बच्चों के लिए मदद करती हैं। दोनों ही बच्चे श्रवण व्याधि, इनसोम्निया, त्वचा, बाल की बीमारियों से पी‹िडत हैं। सामान्य qजदगी जी रहे अभिभावकों से प्रतीक की पैदाइश भी सामान्य बच्चों की तरह ही थी। पांच साल की उम्र में प्रतीक पतला होने लगा तो अभिभावकों के लगा कि खानपान की विसंगतियों के कारण ऐसा हो रहा है। मंजीत को तब शक हुआ जब उसने देखा कि प्रतीक अपनी हथेली पूरी तरह नहीं खोल पाता है। वे अपने बच्चे को लेकर एक आर्थोपेडिक के पास गए। तो इस डाक्टर का भी जवाब था कि घबराने की जरूरत नहीं है। हड्डियों के क‹डे हो जाने के कारण ऐसा हो रहा है। आप्थेलमोलोजिस्ट ने भी कहा कि गंभीर होने जैसा कुछ नहीं है। इसके बाद वे जब कार्डियोलाजिस्ट के पास पहुंचे तो उसने पाया कि हृदय के एक वाल्व में छेद है। और हृदय सामान्य से ब‹डा है। इस चिकित्सक ने ही एमपीएस नामक बीमारी का शक जाहिर किया। १९९५ में वे सर गंगाराम अस्पताल पहुंचे। एम्स ने एमपीएस १ नामक बीमारी से ग्रस्त होना बताया। मंजीत बताते हैं कि उनका छोटा बेटा उस समय दो साल का था। चिकित्सकों ने उसकी जांच भी कराने को कहा तो उसका टेस्ट भी पाजिटिव आया।सन १९९९ तक एमपीएस- १ का कोई भी उपचार उपलब्ध नहीं था। २००६ तक दोनों ही भाई एमपीएस- २ से पी‹िडत हो गए थे। उस समय उनके हर्निया में समस्या थी। इस कारण एक तरफ का हर्निया का आपरेशन किया गया। एमपीएस- २ ने मरीजों को शारीरिक और मानसिक रूप से विकृत कर दिया। उनकी शारीरिक वृद्धि रुक गई। लेकिन उनके अंगों का विकास सामान्य रूप से होता गया। इस बीमारी में हड्डियां इतनी कमजोर हो जाती हैं कि वे बिना किसी दबाव के भी टूट जाती हैं। प्रदीप की कमर में इसी प्रकार का एक फ्रैक्चर हो गया था जिसके ठीक होने में वर्षों लग गए थे। इन दोनों भाइयों ने अब प‹ढाई भी छो‹ड दी है। ये दोनों ही कार्टून फिल्में देखते हैं। इंटरनेट और वीडियो गेम खेलते हैं।ऐसी गंभीर अनुवांशिक बीमारियों में मरीज के साथ उनका पूरा परिवार ही पी‹िडत हो जाता। समाज का इनकी ओर देखने के नजरिये में बदलाव की जरूरत है। सरकार को भी ऐसी दुर्लभ बीमारियों की ओर ध्यान देना चाहिए। कम से कम यह तो सुनिश्चित करना चाहिए कि इलाज के अभाव में किसी की मौत न हो।
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