पिछले पोस्ट से आगे बढ़ते हुए, अब वास्तविक धरातल की ओर. किस प्रकार व्यक्तिगत अहं परिवार की खुशी के नाश का कारण बनता है.
कई लोग कहते हैं कि आत्मघात कोई विकल्प नहीं होता. जब दो लोग साथ में नहीं रह पाते तो उन्हें अलग हो जाना चाहिए. कहना आसान है, करने में थोड़ी परेशानी है. पारिवारिक संबंधों की व्याख्या करते हुए कई पहलुओं पर गौर करना आवश्यक होता है. बच्चे होने के बाद तो अलग होना काफी मुश्किल सा हो जाता है. देखने में आता है कि पारिवारिक कलह से जूझते कई बच्चे या तो मानसिक विकृति की स्थिति में पहुंच जाते हैं या फिर समय से पहले परिवक्व हो जाते हैं. दोनों ही स्थितियां नई पीढ़ी के लिए उचित नहीं होती है. जहां तक मानवाधिकार का प्रश्न है, इन बच्चों की वाकई कोई गलती नहीं होती है. यदि धर्म और अध्यात्म की व्याख्या छोड़ दें तो सीधी सी सांसारिक प्रक्रिया है जिसके तहत ये बच्चे इस दुनिया में आते हैं. मेरा मानना है कि इसमें इनकी कोई गलती नहीं रहती. अब वो टेकेन फार ग्रांटेड की भावना हो या पति-पत्नी का अहं. ये बच्चे बिना किसी गलती के प्रताड़ना के शिकार हो जाते हैं.
आखिर इन बच्चों के प्रति अपने दायित्वों का वहन कौन करेगा. फिर यहां यह बात आती है कि पति और पत्नी दोनों अपने आपमें स्वतंत्र इकाई होते हैं. आखिर इनके भी अपने मानवाधिकार हैं. इन्हें भी अपनी जिंदगी जीने की स्वतंत्रता होनी चाहिए. अक्सर सोचता हूं कि इन परिस्थितियों का हल क्या है. क्या हमारी पुरानी पारिवारिक अवधारणा ही सही थी. फिर लगता है स्त्री ही क्यों त्याग करे पुरुष क्यों नहीं. फिर लगता है कि पुरुष ही क्यों त्याग करे. इसका सबसे सही उत्तर है सामन्जस्य. लेकिन पहले लेख के उद्धरण को एक बार भी लें. जब टेकेन फार ग्रांटेड ऐसी परिस्थिति में हो जहां एक भावुक, संवेदनशील और दूसरा अवसरवादी तो ऐसे में किस तरह ऐसा सामन्जस्य हो सकता है जिससे किसी आगामी पीढ़ी के बच्चे का भविष्य उज्ज्वल हो सके. कौन झुके और कौन न झुके.
रहा सवाल पति-पत्नी के बीच शारीरिक संबंधों का तो उसके लिए ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता है. जब दोनों इकाइयां स्वतंत्र हो जाती हैं तो सामाजिक, धार्मिक मान्यताओं की दीवार भी टूट जाती है. और यह गलत भी नहीं है. किसी जात के पंडित के अनुसार यह गलत आचरण की श्रेणी में आ सकता है परन्तु रोटी, कपड़ा और मकान की तरह यह भी मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं का अंग है. सामान्य सांसारिक मनुष्य किसी योगी की तरह प्रकृति के नियमों के खिलाफ नहीं जा सकता. अगर उसे जाने को मजबूर किया जाए तो वह कुंठित होकर कई प्रकार की मानसिक व शारीरिक बीमारियों से ग्रस्त हो जाएगा. अब फिर वही सवाल उठता है कि ऐसी परिस्थिति में पारिवारिक संबंधों के सही-गलत की समीक्षा कौन करेगा.
बदलते परिवेश में अब समय आ गया है कि ऐसे मामलों में अनावश्यक तर्क-वितर्क को बढ़ावा न देते हुए कुछ ऐसा करना होगा जिससे हर ओर सामन्जस्य स्थापित हो सके. बालगोपालों का जीवन भी संवरे, पति-पत्नी के मानवाधिकारों का भी संरक्षण हो सके. इस विषय पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है, कानून बनाने वालों को भी और महिलाओं और पुरुषों के अधिकारों के स्वयंभू नेताओं को भी.
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