भारतीय लोकतंत्र में एक दौर चला था, खिचड़ी सरकारों का. खिचड़ी इसलिए क्योंकि बाद में गठबंधन शब्द अधिक गरिमामय और प्रतिष्ठित या यूं कहें टिकाऊ हो गया. तो खिचड़ी सरकारों के दौर में मीडिया के ही प्रबुद्ध वर्ग ने आवाज़ उठाई थी देश में द्विदलीय प्रणाली की. खैर, द्विदलीय प्रणाली तो नहीं हो सकी लेकिन यूपीए और एनडीए नामक दो सशक्त गठबंधन ज़रूर बन गए, जिसमें तमाम छोटी पार्टियां समाहित हो गईं. इन तमाम पार्टियों के अपने निहित स्वार्थ हैं. एक का नेतृत्व कमोबेश पूरी तरह कांग्रेस और दूसरी का पूरी तरह भाजपा के हाथ में आ गया. अब हम कह सकते हैं कि अब हमारा लोकतंत्र द्विदलीय सिद्धांत की राह पर चल पड़ा है. जो किसी के साथ नहीं हैं, उनके पीछे सीबीआई है. लेकिन इसका अभी तो आगाज़ है और आगाज़ की खामियां हमें अंजाम दिखा रही हैं. भले ही वामपंथ का क़िला ढह गया हो, लेकिन देश की हालिया घटनाएं अब हमें एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि क्या फिर एक बार हमें राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण जैसे सशक्त समाजवादी हस्ताक्षर और ज्योति बसु, हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे सशक्त वामपंथी हस्ताक्षर की आवश्यकता है. महाराष्ट्र में इसकी सबसे ज़्यादा आवश्यकता महसूस हो रही है, क्योंकि देश की आर्थिक राजधानी मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी है. जब समूचा देश साम्राज्यवाद की अंधी दौड़ में शामिल हो चुका है तो मुंबई का उसका केंद्र बनना स्वाभाविक है.
खैर, बात महाराष्ट्र की करते हैं. थोड़ा इतिहास में जाते हैं. 1959 का वह समय सबको याद होगा जब एबी वर्धन अकेले विदर्भ से वामपंथी खेमे से चुनाव जीते थे. महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों मराठवाड़ा, खानदेश, मध्य, दक्षिण और पश्चिम महाराष्ट्र में वामपंथ और समाजवाद की अच्छी खासी उपस्थिति दर्ज थी. यह वह समय था जब संयुक्त महाराष्ट्र समिति ने चुनाव जीता था. यह समाजवादी राज्य निर्मिति का आंदोलन था. अगर संयुक्त महाराष्ट्र समिति चुनाव जीत जाती तो परिदृश्य कुछ और ही होता. केरल के बाद महाराष्ट्र पहला राज्य होता जहां वामपंथ की सरकार होती. यह हो न सका. विदर्भ ने कांग्रेस का साथ दिया. उस कांग्रेस का साथ दिया जिसने कालांतर में विदर्भ के साथ सबसे अधिक विश्वासघात किया. जब हम आज के संयुक्त महाराष्ट्र में वामपंथ की बात करते हैं तो हम भूल रहे हैं कि इसका इतिहास सन 1960 से पहले का नहीं है. सीपी एंड बेरार से जो आठ ज़िले अलग कर महाराष्ट्र में शामिल किए गए उस समय बापू जी अणे ने कहा था कि महाराष्ट्र को तीन राज्यों में विभक्त कर दिया जाए. विदर्भ, मुंबई और महाराष्ट्र, लेकिन संयुक्त महाराष्ट्र का गठन हो गया. खैर, बात वामपंथ की हो रही है. सीपी एंड बेरार से अलग हुए ज़िलों में भी संयुक्त महाराष्ट्र के लिए वामपंथी और समाजवादी आंदोलन का़फी तीव्र हुए. कई वामपंथी, समाजवादी, विचारक, समाजसेवी नेता हुए जिन्होंने इन आंदोलनों का नेतृत्व किया. यह बात अलग रही कि 1959 के चुनाव में विदर्भ से स़िर्फ ए.बी. वर्धन ही विजयी हो पाए. बापू जी अणे ने महाराष्ट्र के विभाजन की जो वकालत की थी, उसमें सांस्कृतिक, जातिगत विविधता की बात थी. सच भी था. विदर्भ सीपी एंड बेरार से अलग हुआ था. मराठवाड़ा निज़ाम से अलग हुआ था. पश्चिम अलग और मध्य महाराष्ट्र अलग और खानदेश अलग, मुंबई की संस्कृति तो सबसे अलग. इन सभी क्षेत्रों में वामपंथी और समाजवादी आंदोलनों का अच्छा खासा प्रभाव रहा. अगर ये अलग राज्य नहीं बन पाए तो उसका कारण था, उस समय चली भाषाई आधार की लहर. यह आंदोलन किसी राजनेता ने नहीं चलाया था. इसमें समाजवादी, वामपंथी, पत्रकार, बुद्धिजीवी जैसे लोग थे. यह मास मूवमेंट था. माडखोलकर ने संयुक्त महाराष्ट्र का प्रस्ताव बेलगाम में रखा था. दुर्भाग्य की बात है कि वही बेलगाम आज भी महाराष्ट्र में नहीं है. उस समय वामपंथ को समर्थन क्यों मिला? क्योंकि यह परंपरागत सत्ताधारी वर्ग के खिला़फ, श्रमिकों, दलितों, शोषितों का आंदोलन था. यह समाजवादी राज्य की निर्मिति का आंदोलन था. संयुक्त महाराष्ट्र में लगभग 50 साल कामकाजी वर्ग के बीच समाजवादी वामपंथ ही हावी रहा. 1964 में सीपीएम की स्थापना हुई. वैसे ट्रेड यूनियन आंदोलन में आईटीयूसी पहली संगठन है. मुंबई का पोर्ट ट्रस्ट, मिल मज़दूर, कोयला श्रमिकों की आवाज़ उठाने वाला यह पहली यूनियन थी. आज जो लोग आराम से टीए, डीए और अच्छी तनख्वाह पा रहे हैं, उसकी बुनियाद में इन्हीं यूनियन नेताओं का बहा हुआ पसीना है. महाराष्ट्र से वामपंथ के जुड़ाव का एक और बड़ा उदाहरण है 22 जून 1940 में नागपुर में फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना. सवाल यह उठता है कि महाराष्ट्र में इतनी व्यापक पृष्ठभूमि होते हुए भी वामपंथ और यहां तक कि समाजवाद भी पनप क्यों नहीं पाया? आ़खिर क्या कारण था इसके पीछे. अगर संयुक्त महाराष्ट्र के उसी आंदोलन का जज्बा फिर से जगाना हो तो क्या-क्या रास्ते निकल सकते हैं. एकमत से यह विचार तो सामने ज़रूर आया कि वामपंथ और समाजवाद का एकीकरण हुए बिना आज मज़बूत हो चुकी साम्राज्यवादी ताक़तों से लड़ना मुश्किल है. एक ओर महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर में एक दिन में 100 मर्सिडीज कार की बुकिंग होती है और वहीं से बामुश्किल 80 कि.मी. दूर बच्चे कुपोषण के शिकार होते हैं. आ़खिर इस असमानता को समाप्त करने का क्या कोई विकल्प भारतीय लोकतंत्र में बचा है?
प्रगतिशील लेखक संघ के माध्यम से सामाजिक क्रांति लाने में जुटे विदर्भ साहित्य संघ के डॉ. श्रीपाद भालचंद्र जोशी का कहना है कि मार्क्सवादी सोच का राजनीतिक अनुवाद भारत में नहीं हो पाया. इसका कारण यह था कि वामपंथ की राजनीति में जातिगत व्यवस्था, धर्म के आधार पर व्यवस्था का कोई स्थान नहीं है. वामपंथी आंदोलन धन पर भी आधारित नहीं रहा. यह मज़दूरों, मध्यम वर्ग के लोगों का चेहरा है. महाराष्ट्र संतों की भूमि रही है. संतों ने भी सामाजिक समानता और सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन की बात कही. संत ज्ञानेश्वर ने स्थापित मान्यताओं को बदला. संतों ने समसामयिक सामाजिक चेतना का आंदोलन कर सामाजिक समता के विचार समाज में स्थापित किए. इसी कारण यहां कार्ल मार्क्स को समझने की ज़्यादा ज़रूरत महसूस नहीं हुई. आज भी महाराष्ट्र में शेतकरी कामगार पक्ष अस्तित्व में है. यह कभी वामपंथ का बड़ा हिस्सा हुआ करता था. अब क्लासिकल मार्क्सवाद से ऊपर उठकर साइंटिफिक सोशलिज्म की शिक्षा युवा पीढ़ी को दी जानी चाहिए. आज हावी होती जा रही साम्राज्यवादी राजनीति से निजात पाना ज़रूरी हो गया है. प्रमुख मार्क्सवादी विचारक रघुवीर सिंह खन्ना का मानना है कि सत्ताधारियों ने सदियों पहले से ही हमारी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि को छिन्न-भिन्न करने के लिए पंडों को आगे कर दिया था. महाभारत, रामायण और संत परंपरा में कहीं भी सामाजिक विषमता की बात नहीं की गई. पंडों ने अपनी दुकानदारी चलाने के लिए धर्म को तोड़ मरोड़ कर पेश किया. मार्क्स को रशिया या चीन की तरह ही अपनाना भारत के लिए कहां तक उचित है. मार्क्स ने भी कहा था कि देश की संस्कृति के अनुरूप जो प्रासंगिक हो, उसे ही अपनाया जाना चाहिए. भगत सिंह को इतने वर्षों बाद माना गया कि वे वामपंथी थे. हमें अपनी सोच में सुधार करना होगा. वामपंथ में हम कामरेड शब्द का इस्तेमाल करते हैं. इसकी जगह अगर भाई शब्द का इस्तेमाल करें तो क्या फर्क़ पड़ेगा. वैसे भी कामरेड फ्रेंच शब्द है. माओ ने चीन की संस्कृति को लेकर चीन में परिवर्तन की बात कही. हम भी महाराष्ट्र में संत परंपरा को अपना सकते हैं, क्योंकि उन्होंने भी वही किया जो वामपंथ करना चाहता है. लोहिया अध्ययन केंद्र के सचिव और प्रमुख समाजवादी विचारक हरीश अड्यालकर का मानना है कि समाजवाद सीधे लोगों से बात करता है. जयप्रकाश नारायण भी मार्क्सवादी ही थे. जब वह पढ़ाई पूरी कर भारत पहुंचे और महात्मा गांधी के संपर्क में आए तो उन्हें गांधी का मार्ग ज़्यादा उपयुक्त लगा. उन्होंने महसूस किया कि यहां के लोगों का जीवन अलग क़िस्म का है. यहां लोग जातियों, उपजातियों में बंटे हुए हैं. बता दें कि अड्यालकर कई वर्षों से ट्रेड यूनियन आंदोलन भी जुड़े हुए हैं. उनका कहना है कि यहां स़िर्फ मज़दूरों से क्रांति नहीं होगी. सभी पार्टियों को एक करने का काम लोहिया ने किया. अब वामपंथ को समाजवाद से जुड़ना होगा. तभी दो गठबंधन में होते जा रहे राजनीतिक दलों के ध्रुवीकरण का कोई हल निकल पाएगा.
1 टिप्पणी:
बहुत ही बढ़िया जानकारी
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