कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है के ज़िन्दगी तेरी जुल्फों की नरम छांव में गुजर न पाती तो शादाब हो भी सकती थी ये तीरगी जो मेरे जीस्त का मुकद्दर है तेरी नजर की शुआओं में खो भी सकती थी
अजब न था के मैं बेगान-इ-आलम हो कर तेरे ज़माल की रानाइओ मे खो रहा था तेरा गुदाज़ बदन तेरे नीम बार आँखे इन्ही फसानो में मैं खो रहा था
पुकारती मुझे जब तल्खायीं ज़माने की तेरे लबो से हालावत के घूंट पी लेता हयात चीखती फिरती बारहना सर, और मैं घनेरी जुल्फों के साए मे जी लेता
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है के तू नहीं, तेरा गम ,तेरी जुस्तुजू भी नहीं गुजर रही है कुछ इस तरह ज़िन्दगी जैसे इसे किसी के सहारे की आरजू भी नहीं
न कोई राह, न मंजिल ,न रौशनी का सुराग भटक रही है अंधेरो में ज़िन्दगी मेरी इन्ही अंधेरो में रह जाऊंगा कभी खोकर मै जानता हूँ मेरी हम नफस, मगर युहीं कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है,,,,,,,
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