रिटेल के क्षेत्र में एफडीआई यानी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मुद्दे पर इन दिनों माहौल खासा गर्म है. कारण भी साफ है. विपक्ष अब ऐसा कोई भी मुद्दा हाथ से जाने नहीं देना चाहता है जिससे कांग्रेस को कटघरे में खड़ा किया जा सके. हालांकि केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस प्रणित सरकार के सहयोगी दल भी खुदरा कारोबार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध कर रहे हैं. सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां हैं.
उत्तर प्रदेश सहित चार राज्यों के विधानसभा चुनाव सर पर हैं. अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और बाबा रामदेव के काला धन विरोधी आंदोलन के मुद्दे पर सरकार पहले से ही परेशान है. जनलोकपाल के नए तैयार मसौदे पर अन्ना हजारे ने आंदोलन की चेतावनी दे दी है. इसके बावजूद कांग्रेस सांसदों की सभा में सोनिया गांधी की उपस्थिति में रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दे दी गई. आखिर कांग्रेस केंद्र में इतनी मजबूत कैसे हो गई कि पूरी दबंगई से बिना किसी की परवाह किए वह इस बिल को पारित करने पर आमादा है? यह ऐसा सवाल है जिस पर आश्चर्य होना लाजमी है. बसपा और समाजवादी पार्टी ने भी इसका विरोध करने का निर्णय लिया है. भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने जब यह कहा कि इस मुद्दे पर सदन में सरकार के पास बहुमत नहीं है तो पूरी दबंगई से कांग्रेस का जवाब मिला कि जिस गणित की बात सुषमा कर रही हैं, वह गणित हमें भी आता है. यानी यहां दाल में काला वाली बात ही नहीं है. यहां तो पूरी दाल ही काली नजर आ रही है. औद्योगिक नीति एवं संवर्द्धन विभाग (डीआईपीपी) ने एफडीआई से जुड़े व्यापक मुद्दों पर चर्चा पत्र पेश किया है. इसके जरिये विभाग ने सभी अंशधारकों का पक्ष जानने की कोशिश की है. एक बात तो पक्की है कि एफडीआई से जहां उपभोक्ताओं को तो फायदा होता ही ह, वहीं बुनियादी ढांचे और अर्थव्यवस्था को भी लाभ मिलता है. देश में दूरसंचार, वाहन और बीमा क्षेत्र में एफडीआई की वजह से आई कामयाबी को हम देख ही चुके हैं. इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर हुए निवेश की वजह से ग्राहकों को बेहतर सेवाएं और उत्पाद नसीब हुए हैं. बढ़ी प्रतिस्पर्धा ने भी कंपनियों को खुद को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित किया है.
भारतीय खुदरा कारोबार के अलग ही रंग-ढंग हैं. पुराने जमाने में या आज भी गांव में एक परचून की दुकान हुआ करती थी. छोटे शहरों में कुछेक राशन की दुकानें, सब्जी की दुकानें, जूते, कपड़े की दुकानें होती हैं. 1990 के दशक के आखिर में खुदरा कारोबार तेजी से फैलने लगा. आज हालात यह हैं कि हर गली मोहल्ले में कई दुकानें खुल गई हैं. बड़े शहरों में सुपर बाजारों ने भी अपनी जड़ें जमा ली हैं. सब्जी-भाजी से लेकर पेस्ट-ब्रश तक और किराने का हर सामान यहां मौजूद रहता है. देश भर में लगभग 1.5 करोड़ खुदरा कारोबारी हैं और यह तकरीबन 350 अरब डॉलर से भी बड़ा बाजार है. भारतीय खुदरा बाजार में असंगठित क्षेत्र का दबदबा है और कुल बिक्री का 94 फीसदी इनके जरिये ही होता है. बिचौलियों के माध्यम से बाजार का कामकाज चलता है.
वर्तमान में अर्थव्यवस्था की मंदी असर भले ही सीमेंट, स्टील जैसे उद्योगों पर पड़ा हो लेकिन खुदरा कारोबार पर इसका असर ज्यादा नहीं पड़ा है. जैसे जैसे अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ेगी खुदरा कारोबार का आकार भी बढ़ेगा. सामान्य सा गणित है कि बेहतर अर्थव्यस्था से लोगों की क्रय शक्ति भी बढ़ती है. विदर्भ जैसे क्षेत्र में यह चौंकाने वाला तथ्य गत दिनों सामने आया कि यहां दो पहिया वाहनों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है. शराब का सेवन कई गुना बढ़ा है. वो भी ऐसे समय में जब धनाभाव में किसान आत्महत्या कर रहे हों. जाहिर है जैसे-जैसे अर्थ व्यवस्था में सुधार होगा लोगों की क्रय शक्ति भी बढ़ेगी. क्रय शक्ति बढ़ने पर मांग बढ़ेगी और एक अच्छे खासे निवेश की आवश्यकता होगी. इसके लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एक अच्छा माध्यम साबित होगा. एक समय था विक्को टरमरिक आयुर्वेदिक क्रीम लगाए बिना श्रृंगार नहीं होता था. आज कई अन्य क्रीम मल्टी नेशनल कंपनियों के बाजार में उपलब्ध हैं.
अब सवाल फिर एक बार सरकार की मंशा का है. हर मामलों की तरह इस मामले में भी सरकार की मंशा संदिग्ध है. अगर नहीं है तो उसे लोगों को विश्वास में लेना होगा. बिचौलियों को जरूर नुकसान होगा लेकिन कृषि क्षेत्र में असली उत्पादन करने वाला किसान जरूर लाभान्वित होगा. पूरे विश्व के लिए भारत एक बड़े उपभोक्ता बाजार के रूप में विकसित भी होगा. लेकिन सरकार की मंशा गलत रही तो लेने का देना भी पड़ सकता है. कृषि क्षेत्र में अभी माइक्रो फाइनेंस कंपनियों ने प्रवेश कर लिया है. जो किसान बैंकों का कर्ज अदा नहीं कर पा रहे हैं वो इन माइक्रो फाइनेंस कंपनियों का कर्ज कहां चुका पाएंगे. इनकी ब्याज दर भी तो भारीभरकम है. अगर विदेशी निवेशक छलकपट के जरिये किसान की जमीन या कृषि उत्पादन पर ही कब्जा कर लेता है तो बेचारा किसान तो बेमौत मारा जाएगा और अपनी ही जमीन पर मजदूर बन जाएगा. खैर, ये तो भविष्य की अटकलें हैं. इसीलिये सरकार की मंशा की बात हो रही है. जिस तरह से केंद्र सरकार अफलातून निर्णय ले रही है, उसे तो यही लगता है कि वह अब किसानों को पूरी तरह बर्बाद करने पर तुली हुई है. आशंका जताई जा रही है कि इससे
छोटे कारोबारियों को नुकसान होगा और उनकी आजीविका संकट में पड़ जाएगी. लेकिन रिलायंस के खुदरा कारोबार के क्षेत्र में आने के बाद क्या ऐसा हुआ. नहीं. कोई छोटा कारोबारी बर्बाद नहीं हुआ.
खुली अर्थव्यवस्था का दौर शुरू हुए करीब 30 साल हो गए. इस बीच भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी लेकिन किसी ने वैश्वीकरण के दौर को रोकने का प्रयास नहीं किया. देश धीरे-धीरे ही सही लेकिन पूरी तरह पूंजीवाद की ओर बढ़ता जा रहा है. अब इसमें तेजी आ गई है. समाजवाद नहीं चला. साम्यवाद नहीं चला. पूंजीवाद का हश्र अमेरिका में दिख रहा है. भारत में लोकतंत्र की आड़ में पूंजीवाद को स्थापित कर दिया गया है. अब एफडीआई से आम जनता को फायदा ही होगा. लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से अर्थव्यस्था पर विदेशी कंपनियों का शिकंजा कसता जाएगा. भ्रष्ट राजनेता बिकेंगे और जनता को बेच डालेंगे. बस यही प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में सबसे बड़ा रोड़ा है. वैसे अगर मंशा साफ हो तो मीडिया के क्षेत्र में भी शतप्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दे दी जानी चाहिए.
वैसे कृषि उत्पादों के मामले में तो बिचौलियों ने अति कर दी है. हर जगह बिचौलिये शिकंजा कसे हुए हैं. किसान को तो कीमत ही नहीं है. वो फटेहाल है. इसलिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को स्वीकृति देते समय किसानों के हितों का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए. वैश्वीकरण, खुली अर्थव्यस्था के साथ ही गांवों को आत्मनिर्भर बनाने जैसे कम उठाने जरूरी हैं. तभी देश खुशहाल हो पाएगा. अन्यथा अब जो असंतोष भड़केगा वो अन्ना हजारे या बाबा रामदेव को मिल रहे जन समर्थन से कई गुना अधिक होगा.
1 टिप्पणी:
Resp.Anjeev jee. Aap jaisa satywadi apne kary ke prati nishtha se kary karnewala patrakar maine aaj tak nahi dekha..jo jio aur jine do par vishwas rakhta hai..aapki lekhni hamesha kuch sochne par majboor karti hai..shayad ab aisi khari patrakarita ke din nahi rahe,ab to har shirsh sampadak ko golmal kar bajar se paisa aithnewala ptrakar chahiye..thanks..
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