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सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

अकेलेपन से एकांत की ओर


कब आएगा समय
मानवीय मूल्यों को
स्थापित करने का
कब आएगा समय
अपने ईश के चरणों
में समर्पित होने का
राह से भटक गया
जो एक बार मैं
कब आएगा समय
फिर ठहराव का
अपनी अस्मिता को
स्वीकार करने का
भोलेनाथ के चरणों में
शांत चित्त निद्रा का
कब आएगा समय उन
बीते पलों में जीने का....
पहले सुना था, कहीं पढ़ा था शेर की ये पंक्तियां कि- भीड़ है कयामत की और हम अकेले हैं... धीरे-धीरे उसी अकेलेपन के आदी हो गए. जमाने भर के संबंधों, दोस्त-यारों के साथ समय व्यतीत करते कब हम अकेले हो गए हमें पता ही नहीं चला. समय का पहिया घूमता रहता है. जब हमें किसी ने कहा कि तुम अकेलेपन और अवसाद का शिकार हो गए हो तो हमने अपने अतीत में झांक कर देखा. साफ तौर पर दो हिस्सों में बंटी जिंदगी का पहला हिस्सा अकेलेपन से भीड़ की ओर था और दूसरा हिस्सा भीड़भाड़ से अकेलेपन की ओर.
एकांत का शाब्दिक अर्थ तो अकेलापन ही है. क्योंकि एकांत शब्द का अर्थ है एक के बाद अंत. यानी सिर्फ एक. जिंदगी के इस दूसरे हिस्से में यह अकेलापन कब एकांत में तब्दील हो गया पता ही नहीं चला. एकांत भाने लगा. वो कोई समारोह हो, किसी होटल में भोज हो या फिर घर का अमूमन बंद कमरा हो, हर जगह एकांत की तलाश शुरू हो गई. भले ही अकेले न रहा मैं, कोई साथ रहे लेकिन एकांत जरूर महसूस किया. अंतर्मन में हरदम एक सवाल उठने लगा कि आखिर एकांत की लालसा बढ़ती क्यों जा रही है. क्यों भाता है एकांत. फिर व्यक्तित्व भी एक तो पहले से ही सबसे जुदा था, भीड़ में भी अलग दिख जाते थे, अब पूरी तरह जुदा होने लगा है. अगर इस सत्य को माना जाए कि जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहियो.... तो अब लगने लगा है कि शायद ईश्वर को यही मंजूर है. नकारात्मक विचारों को सुनना पढ़ना तो दूर, नकारात्मकता से घिरे, आडंबर से घिरे या फिर दोमुंहे लोगों को देख कर ही सिहरन सी हो जाती है. ऐसे में जमाने के साथ चलने की बात तो अब समझ के बाहर होती जा रही है.
कहते हैं कि जब भी हम अकेले होते हैं तब हमारी गति बाह्य न होकर आंतरिक होती है. एकांत के क्षणों में मैं से सामना अपने आप हो जाता है। सच है ये एकांत अब आत्मसाक्षात्कार कराने लगा है. लगभग अधिक से अधिक आधी जिंदगी गुजारने के बाद जब सीनियारिटी के दंभ ने अपना स्थान बना लिया है तब आत्मसाक्षात्कार करना कभी-कभी तनावग्रस्त कर देता है. कहते हैं, भीड़ हमेशा ही निर्माण की भूमिका निभाने की बजाय विनाश ज्यादा करती है, इसलिए भीड़ को मूर्खता का प्रतीक माना जाता है. एकांत के कारण फैसले लेना काफी सुविधाजनक होता है. एकांत जीवन के लिए बहुत आवश्यक होता है. इससे हमें अपने अंर्तमन में झांकने का मौका मिलता है और हम अपना मूल्यांकन खुद ही कर सकते हैं.
विद्वानों का मत है कि अकेलापन और एकांत दो अलग स्थितियां हैं,  कुछ लोग ऐसे होते हैं जो स्वभाव के कारण जानबूझ कर एकांत पसंद करते हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो अपने लिए समय निकालने के लिए एकांतवास में जाते हैं. दूसरी किस्म के लोग नैसर्गिक रूप से लोगों के बीच रहना पसंद करते हैं, किंतु मानसिक शांति और आत्मिक सुख के लिए उन्हें एक सुकून का कोना चाहिए होता है. वह कोना बेडरूम,  बाथरूम या स्टडी रूम भी हो सकता है. इस एकांतिक स्वभाव की जड़ें बचपन में गहरी होती हैं, जो वयस्क होने पर विविध रूपों में सामने आती हैं. जिन लोगों का बाल्यकाल भरे-पूरे परिवार के बीच गुजरता है, उनके जीवन में रचनात्मक किस्म के एकांत को लेकर आकर्षण होता है. ऎसे लोग सर्जनात्मक रूप से एकांत का उत्सव मनाते हैं.


मनोचिकित्सक कहते हैं कि जिन लोगों का बचपन एकल परिवार में, खास तौर से एकल परिवार में मां-बाप के बिना हास्टल  में गुजरता है, उनमें अकेलापन बुरी तरह घिरने की संभावना होती है, जो आगे चलकर जीवन को कई बार बेहद दर्दनाक बना देता है। ऎसे व्यक्ति अगर बचपन में दोस्तों के साथ ज्यादा समय गुजारते हैं तो उनमें अकेलेपन के दुष्प्रभाव नहीं होते. हालांकि स्थितियां इसके बिल्कुल उलट भी हो सकती हैं. दरअसल सारा खेल इस बात पर निर्भर करता है कि मनुष्य जिंदगी को किस रूप में लेता है. बचपन के प्रभाव कालांतर में सोहबत से बदल भी जाते हैं और ज्ञात-अज्ञात कारण  एकांत और अकेलेपन को लेकर व्यक्ति के स्वभाव में जबर्दस्त बदलाव ला सकते हैं. जब तेज तूफानी हवाएं चलने लगती हैं तो कुछ लोग दरवाजे बंद कर दीवारों  में कैद होने लगते हैं, वहीं दूसरे लोग पवन चक्कियां लगाने लगते हैं. आध्यात्मिक साधना के लिए एकांतवास तो हमारे देश में सदियों से होता आ रहा है.
विद्वानों का मत है कि आत्मचिंतन के बिना कोई भी व्यक्ति अपने जीवन के वास्तविक मकसद को नहीं पा सकता,  इसलिए हर व्यक्ति कभी ना कभी इस प्रक्रिया से गुजरता है, लेकिन सामान्य व्यक्ति के लिए आत्मचिंतन का अर्थ रोजमर्रा के जीवन की समस्याओं और परिवार तथा अपने भविष्य को लेकर ही होता है. किसी भी व्यक्ति के लिए अपने आत्मचिंतन की प्रक्रिया  एकांत से शुरू होती है. आरंभ में यह प्रक्रिया किसी नौसिखिए की तरह सितार बजाना सीखने जैसी होती है. पहले तो सितार का वजन ही ज्यादा लगता हैऊपर से कोमल अंगुलियों के पोर कसे हुए तारों के तीव्र स्पर्श से लहूलुहान होने लगते हैं. इसीलिए अधिकांश लोग अपने आत्मचिंतन के प्रवेश द्वार से ही पलायन कर जाते हैं. मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि यह सब कुछ मैं जानबूझ कर नहीं कर रहा हूं. परिस्थितियां ऐसी बन रही हैं कि मुझे यह सब करना पड़ रहा है. या फिर अनजाने की अकेलेपन से एकांत का प्रवास शुरू हो गया है. नागपुर के बाहर एक संस्थान में जब नौकरी के एवज में मासिक वेतन के संबंध में पूछा गया तो अचानक ही मेरे मुंह से निकल गया कि सबसे पहले जरूरी है मेरे रहने और खाने की व्यवस्था. तो पूछने लगे कि आपको रहने के लिए कैसा घर चाहिए. मैंने कहा कि मुझे घर नहीं सिर्फ एक रुम चाहिए जिसमें शौचालय, स्नानगृह संलग्न हो. बाद में मुझे हंसी भी आई कि ऐसा कहना मेरा व्यावसायिक दृष्टिकोण नहीं था. 
खैर, बात एकांत की ओर प्रवास की हो रही थी. कहते हैं- करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान... यानी अकेलेपन और एकांतप्रियता की प्रक्रिया जब किसी व्यक्ति के जीवन का अहम हिस्सा बन जाती है तब उसे इसमें अपूर्व आनंद आने लगता है और वह समय मिलते ही अपने आत्मिक आनंद की खोज में अपनी मनचाही जगह चल देता है. एकांत में मेरी मनचाही जगह होती है मेरा कमरा और मेरा कम्प्यूटर. कम्प्यूटर पर इंटरनेट की सुविधा अब जरूरत बन गई है. कोई माने या न माने मगर फेसबुक पर देश भर के लोगों के साथ बौद्धिक स्तर पर विचारों का आदान-प्रदान और स्वयं के ब्लाग पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति में जितना आनंद आता है, उतना तो किसी डिस्कोथेक में जाकर भी नहीं आता है.
पश्चिम के देशों में अकेलापन भयावह रूप लेता जा रहा है. मनोवैज्ञानिक रॉबर्ट वीस के अनुसार अकेलेपन के दो प्रकार होते हैं, भावात्मक या सामाजिक एकाकीपन और सामयिक या घातक अकेलापन. दोनों प्रकार के एकाकीपन के फायदे-नुकसान हैं, लेकिन वीस का कहना है कि व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में अत्यधिक एकाकी नहीं होना चाहिए. इसीलिए रचनात्मक एकांत को वीस जैसे मनोवैज्ञानिक मनुष्य के लिए उपयुक्त मानते हैं. लेकिन इस एकांत की अवधि अधिक ना हो तो बेहतर रहता है, क्योंकि इससे कई किस्म की शारीरिक और मानसिक व्याधियां पनपने लगती हैं. मनोवैज्ञानिक जॉन टीपो ने २००८ में अपनी नई खोज से प्रमाणित किया है कि लंबे समय तक एकाकी रहने से व्यक्ति के सामान्य बोध की चेतना और इच्छा शक्ति पर गहरा असर पड़ता है. दरअसल इसीलिए व्यक्ति के लिए रचनात्मक एकांत का मतलब है, किसी निश्चित काम या अवधि के लिए चिंतन मनन करते हुए अपने मानसिक और रचनात्मक आनंद की खोज करना. अपने मामले में मैंने पाया कि लेखन और दादा नामस्मरण से वाकई रचनात्मक आनंद की प्राप्ति होती है. शायद पत्रकारिता के क्षेत्र में १८ साल से अधिक समय बीत जाने के कारण लेखन का आनंद अंतरात्मा को तृप्त कर देता है. नोबल पुरस्कार से सम्मानित लेखिका नादिन गार्डीमिर कहती हैं कि लिखने के वक्त का एकांत भयानक होता है लगभग पागलपन जैसा. मुझे लगता है कि बचपन का अंतर्मुखी स्वभाव वापस लौट रहा है. एकांत की गहराइयों में यह सब लिखते हुए महसूस कर रहा हूं कि प्रभु भोलेनाथ, दादाजी धूनीवाले की शायद यही इच्छा है और इसी कारण परिस्थितियां विवश कर रही हैं, उस अनंत की ओर प्रवास के लिए, जहां कहा जाता है कि शून्य है... उसके आगे कुछ भी नहीं है. क्योंकि आदमी जब एकान्त में होगा तब वह बिल्कुल अपने साथ होगा और परमात्मा की निकटता मिलने की सम्भावना अधिक प्रबल हो जाएगी.

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