इस समय नागपुर का मौसम

शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

दीक्षाभूमि का दशहरा देखा



इस साल दशहरे के दिन दीक्षाभूमि पहुंच गया। आपको बता दें कि नागपुर का दीक्षाभूमि स्मारक ऐतिहासिक स्थल है। यहीं भीमराव डा. बाबासाहब आंबेडकर ने लाखों दलितों को दशहरे के ही दिन बौद्ध धर्म की दीक्षा दिलाई थी। आज ये लोग राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो गये हैं।
तो इस साल दशहरे के दिन दीक्षाभूमि पहुंच गया। अनजाने में नहीं गया। होशोहवास में गया था। वहां जाने का निमित्त बना था, दलित सेना द्वारा लगाया गया भोजनदान का स्टॉल। वहां गया। वहां हमारे बड़े भाई सूर्यमणि भिवगड़े जी व्यवस्था संभालते हैं। मुझे प्यार से उन्होंने भोजन कराया। पता नहीं क्या आनंद आया कि, वापस घर कब पहुंच गया, पता ही नहीं चला। ये तो था घटनाक्रम का विवरण। शायद मेरा आब्जर्वेशन मोड शुरू था तो निरीक्षण हो गया। 
जब विश्लेषण शुरू हुआ तो मैं खुद दंग रह गया क्योंकि - 
- पहली बार मैं दीक्षाभूमि गया था दशहरे के दिन।
- इस बार रावण दहन को लेकर मुझमें विरक्ति का भाव था। क्योंकि मुझे यह पौरुष का छद्म अहंकार प्रतीत हुआ।
- मगर दीक्षाभूमि में लाखों की भीड़ में कहीं रावण नहीं दिखा।
- एक संगीत था जीवन का। जीवन में परिवर्तन का। समग्रता को प्राप्त सहजीवन का।
- कहीं जीत-हार का कोलाहल नहीं था।
- न कोई अच्छा था, न कोई बुरा। बस जो था, वो था। यानी न अच्छाई का दंभ था, न बुराई का। बहुत गहरे में, अगर कुछ था तो जीवनदायी समुद्र का संगीत था।
- कहीं कर्ताभाव न था क्योंकि सब कुछ हो रहा था। अकर्ता भी नहीं था क्योंकि सब कोई कुछ न कुछ कर रहे थे।
- लगा कि असंख्य चेतनाओँ की सम्मिलित महाचेतना ने विशाल नदी का रूप धारण कर लिया है और यह नदी स्वयंभू समुद्र की ओर प्रवाहित है।
- डॉ. आंबेडकर के प्रति सहज श्रद्धानत् हो गया।
- दलित सेना के स्टॉल पर पहुंचा तो देखा करीब आधा कि.मी. लम्बी पंक्ति लगी है। लोग आते जा रहे हैं, भोजन पाते जा रहे हैं मगर पंक्ति छोटी नहीं हो रही है।
- स्टॉल के भीतर गया। वहाँ भी भोजन शुरू था। नाम तो था भोजनदान। परन्तु वहां दान का दंभ गायब था सिर्फ भोजन था और उसका वितरण था। सो इसे कुछ निःशुल्क भोजन वितरण सेवाकार्य कहना ज्यादा उचित लगा। 
- एक ओर भोजन बन रहा था। एक ओर बंट रहा था। हर कोई मगन था। कहीं थकावट नहीं, कहीं कर्ता भाव नहीं, सब कुछ सहज था। ईश्वर के वास का सहज, स्वाभाविक संगीत था। बुद्ध का अनात्म भी था, परमात्मा का वास भी था।
- और सूर्यमणि जी....? कर्म संन्यास की कमान संभाले व्यवस्था संभाल रहे थे।

जय हो........................... जय हो....................... जय हो.............।


कोई टिप्पणी नहीं: