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गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

आभार समूची सृष्टि का


पूर्णता की ओर अग्रसर पुस्तक संतुलन का सच के पहले पृष्ठ की कविता-

Aksa Beach, Mumbai


उसमें भी मैं था
मुझमें भी मैं था
चीख भी मेरी थी
दर्द भी मेरा था
तूफान भी मेरा था
आनंद भी मेरा था
उसमें भी भगवान थे
मुझमें भी भगवान थे
सब कुछ सहज था
कायनात का साथ था
समंदर का किनारा था
बस उसका ही सहारा था
तन में अगन पर लय था
मन भी मगन, लय में था
मुझमें वो थी या उसमें मैं था
सच में समझना कठिन था
दोनों में समर्पण था
मन एक, तन भी एक था
समंदर की दूर उठती
लहरें भी बेचैन थीं
जल्दी आना चाहतीं
पर नियमों में आबद्ध थीं
उसकी अपनी प्रक्रिया थी
हमारी अपनी प्रक्रिया थी
मगर समा खामोश था
सबमें अपना जोश था
दूर दिखती बड़ी लहर
पास आती छोटी लहर
समंदर का मधुर कंठ था
कर्णप्रिय गीत-संगीत था
न स्पीकर का शोर था
न डीजे का उन्माद था
प्रकृति का यह सृजन था
नए सृजन का आगाज था
सांसों का ज्वार-भाटा था
वहां भी समंदर का गीत था
सबकुछ स्वचालित था
स्वानुभूत, स्वाभाविक था
समंदर विशाल था
अनंत था, शून्य था
शायद यही सत्य था
शाश्वत था सनातन था
संतुलन की पुस्तक
पूर्णता चाहती थी
मुझे मिलन का तत्व
समझाना चाहती थी
यह पूर्णता की प्रयोगशाला थी
संपूर्ण जीवन की पाठशाला थी
मैं छात्र, मेरी जान छात्रा थी
कायनात हमारी मार्गदर्शक थी
जिंदगी का एक और सफर पूरा हुआ
नए सफर का आधार पुख्ता हुआ
यही संतुलन का नियम है
सृष्टि के संचालन का सच है
नतमस्तक हूं, आभारी हूं मैं सबका
गुड़िया का, सृष्टि की हर रचना का 
समूची सृष्टि का
सृष्टि के नियंता का।।