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बुधवार, 20 मार्च 2013

स्त्री अत्याचार के खिलाफ एक माँ का फैसला






मिलिए कविता ताई येलपुरे से. वैसे तो वह दादा धाम प्रणेता श्री नरेन्द्र दादा की अर्द्धांगिनी हैं. लेकिन इससे अधिक वह दादा धाम का मुस्कुराता हुआ चेहरा हैं. करुणा की प्रतिमूर्ति. शांत, विश्वास से भरी हुई, सुखदायक आश्वासन और अनुग्रह की एक तस्वीर हैं. यदि श्री नरेन्द्र दादा दादाधाम के प्रमुख हैं, मस्तिष्क हैं तो कविता ताई दिल हैं.
लगभग हमेशा, दादा धाम की हर नई गतिविधि प्रणेता से शुरू होती है (यानी श्री नरेन्द्र दादा से). लेकिन इस बार मातृरूपेण कविता ताई ने सभी भक्तों को महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार के खिलाफ एक अभियान शुरू करने को प्रेरित किया है. उन्होंने जब पहली बार स्कूल जाने वाली लड़कियों के अमानवीय यौन उत्पीड़न के बारे में पढ़ा, उनके दयालु हृदय में दर्द, क्रोध और चिंता का भूचाल आ गया. और उन्हें इस अभियान के लिए दृढ़ संकल्पित किया. आँसू और सहानुभूति के परे कुछ रचनात्मक करने का संकल्प.
उन्होंने सभी भक्तों की एक बैठक बुलायी और उन्हें अपनी योजना से अवगत कराया. उनके विचार और कार्य योजना दोनों ही प्रशंसनीय हैं. उनका विचार है कि अबोध कन्याओं सहित सामान्य जनता अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए सिर्फ पुलिस पर निर्भर नहीं रह सकती. लोगों को अपराध और हिंसा के खिलाफ एकजुट होना पड़ेगा. आवश्यकता सिर्फ जागरूकता की है. जब वे संभावित खतरे के प्रति जागरूक हो जाएंगे, वे सावधानी बरतने लगेंगे. वे अपराधों के खिलाफ लड़ने के लिए उपाय अपनाने लगेंगे.
कविता ताई की कार्य योजना का पहला भाग है- नागपुर शहर के प्रमुख चौराहों पर पथ नाट्य. पथ नाट्य उस स्थान से गुजरने वालों का ध्यान आकर्षित करेगा, साथ ही उन्होंने असामाजिक तत्वों के हमलों के खिलाफ तैयार होने का संदेश मिलेगा.
कुशल मार्गदर्शन के अंतर्गत पुरुष और महिला कलाकारों का दल पथ नाट्य के लिए गठित किया जा चुका है. यह दल शांति के संदेश वाहक रूप में कार्य करेगा. कविता ताई की आध्यात्मिक पृष्ठ भूमि ने उन्हें अमानवीय कृत्यों के कारणों के विश्लेषण के लिए सक्षम बनाता है. उनके अनुसार, मानसिक विकृति और आपराधिक मानसिकता मानसिक प्रदूषण को जन्म देती है. महिलाओं के खिलाफ अपराध पुरुषों के ऐसे ही मानसिक प्रदूषण का परिणाम है.
हालांकि, जागरूकता इसका उपचारात्मक उपाय है. उपचारात्मक भाग में पुरुषों के मानसिक कचरे को साफ करना भी शामिल है. उन्हें गंदे साहित्य, अश्लील फिल्मों और सेक्स को बढ़ावा देने वाली दवाओं के उत्तेजक विज्ञापन से बचना चाहिये. आचार-विचार, नैतिकता और सकारात्मक मूल्य की ओर रूझान उन्हें इनसे बचाएगा. आध्यात्मिकता भी पुरुषों के चरित्र निर्माण में भूमिका निबा सकता है. कविता ताई के प्रयास इसी दिशा में हैं.
कविता ताई ने सभी शांति प्रिय संगठनों, शैक्षणिक संस्थाओं, नागरी निकायों और सामान्य जनता से दादा धाम का पथनाट्य देखने और कलाकारों के इस दल को अपने क्षेत्र में आमंत्रित करने का आह्वान किया है. पथनाट्य निःशुल्क प्रस्तुत किये जाएंगे. यह जागरूकता के पहिये को गतिशील करने में मदद करेगा.

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

कुछ गलत नहीं है मुलायम राग में



मुलायम सिंह यादव देश के एक मात्र नेता हैं जिन्हें डाक्टर राममनोहर लोहिया का राजनीतिक उत्तराधिकारी कहा जा सकता है। कालांतर में कुछ समाजवादी पार्टी की कुछ नीतियां भले ही लोगों को खटके लेकिन डाक्टर लोहिया की मृत्यु और समाजवादी आंदोलन के बिखरने के बाद की स्थिति में इसे समय की मांग भी कहा जा सकता है। जब डाक्टर राममनोहर लोहिया जैसे दूरदृष्टि रखने वाले नेतृत्व का जिक्र आता है तो मन अनायास ही कृतज्ञता से भर जाता है।
मुलायम के लिए मन में कृतज्ञता इसलिए है क्योंकि उन्होंने डाक्टर लोहिया के प्रति अपनी कृतज्ञता को नहीं भुलाया है। १९७० के दशक में समाजवादी आंदोलन के तहस-नहस हो जाने के बाद जितने भी नेता थे, उन्होंने अपना अलग ठौर खोज लिया। ज्यादातर ने अपनी पार्टियां बना लीं। कुछ ने राज्यों में शासन भी किया। लेकिन उनके शासन में डाक्टर लोहिया की छाप दिखनी तो दूर उनका नाम भी नहीं लिया गया। कुछ नेता कांग्रेस में शामिल हो गये तो कुछ ने अपनी पार्टी बना कर बड़े दलों का हाथ थाम लिया। वर्तमान में समाजवाद के नाम पर बने दलों में से समाजवादी पार्टी, जनता दल (यू), राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (बीजू) ही प्रमुख हैं। बाकी सभी दल अपनी मांद में ही सिमटी हुई हैं।
बीजू जनता दल का उड़ीसा जबकि जदयू का बिहार में शासन है। दोनों को लंबी पारियां मिली हैं खेलने के लिए। राजद के लालू यादव बिहार में लंबे समय तक शासन कर चुके हैं। मुलायम सिंह यादव की पार्टी का इस बार का उत्तर प्रदेश में जीतना कुछ अलग मायने रखता है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने डाक्टर लोहिया सहित समाजवादी नेताओं के नाम पर योजनाएं शुरू कर समाजवाद की मूल धारा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त कर दी है। जबकि उड़ीसा या बिहार में ऐसा कुछ देखने को नहीं मिलता है। यहां तो सरकार डाक्टर लोहिया और समाजवाद का नाम लेने से इस कदर घबराती है जैसे कांग्रेस की सरकार घबराती है।
इन तीनों राज्यों में एक बात साफ है कि यहाँ जनता लगातार कांग्रेस के खिलाफ वोट देती आ रही है और इन राज्यों में कांग्रेस की हालत अब काफी कमजोर है। यही डाक्टर लोहिया चाहते थे। गैर कांग्रेसवाद का नारा उन्होंने स्वतंत्रता के समय ही बुलंद किया था जब उन्हें समझ में आ गया था कि पंडित जवाहरलाल नेहरू की अमेरिका परस्ती इस देश को फिर से गुलामी की ओर ले जाएगी। लेकिन इसके साथ ही डाक्टर लोहिया राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और कम्युनिस्टों की मंशा पर भी भरोसा नहीं कर पाये। इसी कारण उन्होंने सभी के साथ समान दूरी बना कर कई सफल आंदोलनों को अंजाम दिया। 
लोकसभा में राष्‍ट्रपति अभिभाषण की चर्चा के दौरान सपा नेता मुलायम ने अपने भाषण में कहा कि हम भाजपा के सीमा, भाषा और देशभक्ति के मुद्दे से पूरी तरह सहमत हैं और अगर वह कश्‍मीर और मुस्लिम मुद्दे पर अपने विचार बदले तो हम दोनों एक साथ आ सकते हैं और हमारे बीच में बनी खाई पट सकती है। वहीं मुलायम की बातो को सुनकर राजनाथ सिंह खुद को रोक नहीं पाए और बोल पड़े कि हमारे बीच दूरियां हैं ही कहां, लगे हाथ सिंह ने यह भी कह डाला कि वह और मुलायम एक साथ आ सकते हैं। यूपीए सरकार से असंतुष्ट मुलायम का कहना है कि गरीबों और किसानों के मुद्दे पर भाजपा और सपा की नीतियां एक सी हैं।
निःसंदेह मुलायम सिंह की यह बाद अक्षरशः सत्य है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के छिपे एजेंडे को भी देखना जरूरी है। १९७५ की संपूर्ण क्रांति के बाद समाजवादी आंदोलन तो बिखर गया लेकिन संघ को सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि कांग्रेस से असंतुष्ट जन समुदाय उससे जुड़े गया। भले ही राम जन्म भूमि से भाजपा का जनाधारा विशाल होने की बात कही जाती है लेकिन इसका सूत्रपात तो १९७५ में ही हो गया था। इस सचाई से सतर्क रहना मुलायम के लिए जरूरी है। वैसे भी मुलायम अपने मुस्लिम वोट बैंक को भूल नहीं सकता।
दरअसल, कांग्रेस के किनारा करना समय की मांग है। आज देश में अराजकता की वही स्थिति है जो १९७० के शुरुआती दशक में थी। डाक्टर राममनोहर लोहिया के वैचारिक उत्तराधिकारी स्व. अध्यात्म त्रिपाठी ने १९७२ में एक पत्र में लिखा था कि देश हिटलरशाही के दौर से गुजर रहा है और इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर अगले १-२ वर्षों में देश में इमरजेंसी लगा दी जाएगी। तीन वर्षों बाद उनका आकलन सही निकला था और देश में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी। आज भी अराजकता की कमोबेश वैसी ही स्थिति से देश गुजर रहा है। हालांकि इमरजेंसी लगने के फिलहाल कोई संकेत नहीं हैं लेकिन जिस तरह सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर विरोधियों को दबाया जा रहा है और जिस तरह जनता में आक्रोश बढ़ता जा रहा है, उससे कहीं न कहीं १९७५ की विस्फोटक स्थिति ही बन रही है। ऐसे में समाजवादियों के दूसरे धड़ों को भी चाहिये कि अहं ब्रह्मस्मि का भाव छोड़ कर अपने जड़ की ओर देखें और कोई निर्णय लें।
cartoon: JNI News, Utter Pradesh