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सोमवार, 16 अगस्त 2010

लम्हा-लम्हा... चलते-चलते...


लम्हा-लम्हा चलते-चलते पता नहीं ऐसा क्यों होता है इस जिंदगी में. क्यों खबर बेखबर सा मुझे सब कुछ खतम करने पर मजबूर होना पड़ता है. क्या मेरी सोच ही गलत है. या फिर यही जिंदगी है. हरेक की जिंदगी की दशा और दिशा अगल-अगल है. क्यों कभी-कभी ऐसा लगता है कि इस दुनिया में सब कुछ झूठा है. सब कुछ एक ढोंग है. इसमें इन्सानियत, सचाई, गुमराह न करना, अपने कार्य के प्रति समर्पण, सिंपल लीविंग एंड बिग थिंकिंग जैसे अल्फाजों की कोई अहमियत नहीं है.
हो जाता कुछ ऐसा घटित जब अपनी सतर्कता न रहने या किसी भी दो कौड़ी के लोगों पर भरोसा कर लेने के कारण बेइज्जत होना पड़ता है. अपने काम में कुशलता का खामियाजा हमेशा ही कुछ इस तरह से भुगतना पड़ता है कि कुछ सहयोगी अपने अहं की तुष्टि के लिए कुछ लोगों को मोहरा बनाते हैं और लांछित करने का प्रयास करते हैं. वो तो मैं सोचता हूं कभी-कभी कि गनीमत है कोई दुराचरण की श्रेणी की गलती नहीं की. नहीं तो ऐसे मौकों पर अहं की तुष्टि करने वाले तुच्छ लोग तो जिंदा ही दफना दें. फिर ऐसे समय लगता है कि विफलताओं के लिए ईश्वर को कोसने से कोई फायदा नहीं. क्योंकि उसने मुझे दुराचरण की श्रेणी वाली गलतियों से बचा कर रखा.
वैसे, हर एपीसोड में एक बात तो साफ रहती है कि जसा दिसते, तसा नसते- अर्थात जैसा दिखता है, वैसा नहीं रहता. मुझे तो इंट्यूशन भी भेजता है भगवान. मुझे कुछ अनहोनी की आशंका उसी समय हो जाती है जब मैं कोई गलती करने के करीब होता हूं. या बिना गलती के कुछ होना होता है. बिना गलती के तब होता है जब किसी का अहं टकराता है या फिर कोई उच्चाधिकारी चमचों की फौज से गुमराह हो जाता है. अब सोचता हूं कि चमचागिरी शुरू कर दूं.
सबकी हां में हां मिलाना. किसी के अहं को चोट न पहुंचाना. किसी को सलाह न देना. क्योंकि मेरा व्यक्तिगत अनुभव यही कहता है कि अनहोनी की आशंका के बावजूद होनी होकर रहती है. इसी प्रकार किसी का सही मार्गदर्शन भी गलत है. क्योंकि जो होना है, वह तो होकर ही रहेगा. फिर क्यों किसी को सम्भावित खतरे के प्रति आगाह करना.
सब पागलपन है. फिर कई बार कबीर दास जी की ये पंक्तियां याद आ जाती हैं-
कबीरा खड़ा बाजार में
मांगे सब की खैर
ना काहू से दोस्ती
ना काहू से बैर!
लेकिन सच कहूं. दोस्ती अपनी जगह बरकरार रहती है. हालांकि मेरे मामले में बैर ज्यादा दिन टिकता नहीं लेकिन बैर है कि होता ही है. अब जो कोई किसी का दिल दुखाएगा, उसे तकलीफ तो होगी ही ना. एक को अभी होती है और दूसरे को बाद में. मगर, विघ्न संतोषियों का चमत्कार ज्यादा दिन नहीं चल पाता है. उन्हें एक न एक दिन रसातल में जाना ही पड़ता है.
अब ये बात अलग है कि नेता मंत्री बन के भी वहीं रहते हैं. क्योंकि उन्हें ईश्वर ने राजनीति करने को ही भेजा है. और राजनीति में साम, दाम, दंड, भेद तो चलता ही रहता है. लेकिन जो राजनीति में नहीं है, वो भी वही सब करता है तो लगता है कुछ गलत हो रहा है.
लेकिन क्या सच में ये कलयुग है..... तो क्या हमने शैतान बन के जीना चाहिए.... प्रश्न अनुत्तरित है. खोज जारी है.....