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बुधवार, 23 जून 2010

क्या फिर विकल्पहीन हो रहा है देश

क्या फिर विकल्पहीन हो रहा है देश
देश की वर्तमान राजनीतिक दशा व दिशा ने एक बार फिर विकल्प शून्यता की स्थिति उत्पन्न कर दी है. इसके साथ ही देश एक बार फिर उन्हीं इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के काल में पहुंच रहा है जहां उनकी सत्ता को कोई चुनौती नहीं थी. भारतीय राजनीति के लिए इसस बड़े शर्म की बात और क्या हो सकती है कि यहां भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सामने कोई भी राजनीतिक दल सशक्त चुनौती बनकर खड़ा होने की स्थिति में नहीं है.
वाम दल तो, अपेक्षा के अनुरूप अपने सबसे बड़े विध्वंस की ओर अग्रसर हैं. अब अपेक्षा भारतीय जनता पार्टी से ही हो सकती है. लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव के समय से ही जिस प्रकार भाजपा मुद्दाविहीन पार्टी बनते जा रही है, उससे फिर एक बार कांग्रेस की विकल्पहीन सत्ता की आशंका पैदा हो गई है. भारतीय जनता पार्टी इन दिनों विरोध तो करती है, मगर एक त्यौहार या अवसर के रूप में. एक ऐसा अवसर जो साल में एक-दो बार आता है, रात गई-बात गई की तर्ज पर गायब हो जाता है.
समस्याओं की नहीं है कमी
ऐसा नहीं है कि देश में सब कुछ ठीक चल रहा है. ऐसा भी नहीं है कि देश में कोई समस्या नहीं, मुद्दा नहीं. भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद नितिन गडकरी से काफी अपेक्षाएं जनमानस को हैं. लगता है गडकरी भी अब दिल्ली के राजदरबार के खिलाड़ी बनते जा रहे हैं. जिस युवा और विकासोन्नमुख दृष्टिकोण के लिए गडकरी जाने जाते हैं, वह कमोबेश अब तक उनकी करनी में नहीं दिखा है. लगता है आम चुनाव के पहले अपने कार्यकाल का पहला चरण गडकरी दिल्ली दरबार में अपनी उपिस्थिति मजबूत करना चाहते हैं. लेकिन इस बीच मुद्दाविहीन और चेतनाविहीन एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं को, समर्थकों को निराश जरूर कर रहे हैं. हां, टीवी चैनलों पर अपने इंटरव्यू में जरूर गडकरी अपनी विकासपरक राजनीति की वकालत करते सुने जा सकते हैं. यानी गडकरी ने भी वही शुरू किया है जो अमूमन दिल्ली के नेता करते हैं... वो है मीडिया की राजनीति. महंगाई का मुद्दा हो या नक्सलवाद का हर जगह भाजपा बैकफुट पर ही खड़ी दिखाई देती है. आतंकवाद, परमाणु संशोधन, भोपाल गैस त्रासदी जैसे मामलों में भी विपक्ष कहीं दिखाई नहीं दिया.
राहुल का तो विकल्प ही नहीं दिखता....
यह सच है, एकदम अकाट्य सच कि आज भारतीय राजनीति में राहुल गांधी के युवा व्यक्तित्व का जवाब कहीं दिखाई नही देता है. गड़करी की तुलना राहुल गाधी के व्यक्तित्व से नहीं की जा सकती है. दोनों के जनाधार, दोनों की कार्यप्रणाली, दोनों के व्यक्तित्व, दोनों की पार्टियों की विचारधारा हर जगह जमीन-आसमान का अंतर है. ऐसे में यह देखना मजोदार होगा कि भाजपा किस प्रकार राहुल के युवा व्यक्तित्व का सामना करती है.
(जारी...)