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बुधवार, 31 मार्च 2010

दुर्लभ बीमारियां - इंतजार मौत का

दुर्लभ बीमारियां - इंतजार मौत का
भारत में कुछ दुर्लभ बीमारियों ने ज‹डें जमानी शुरू कर दी हैं। इन बीमारियों के हालात यह हैं कि कई मामलों में चिकित्सक भी जांच नहीं कर पाते हैं। जब जांच की ही यह हालत है तो फिर उपचार की बात करना भी बेमानी है। देरसवेर जब असली बीमारी का पता चलता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। और पता चलने के बाद भी उपचार इतना महंगा है कि यह आम आदमी के बस का नहीं है। अब जो लोग इस प्रकार की अनुवांशिक बीमारियों से पी‹िडत हैं, मरीज के साथ ही उनका परिवार भी परेशानियां झेलता है। परिवार का हर सदस्य कहीं न कहीं इसके कारण प्रभावित होता है। इन परिवारों के लिए qजदगी के मायने बदल जाते हैं। इन दुर्लभ बीमारियों का उपचार अगर है तो वह भी सिर्फ अमेरिका में ही संभव है। बालीवुड में भी इन दिनों दुर्लभ बीमारियों पर फिल्में बन रही हैं। आमिर खान की फिल्म तारे जमीं पर में डायस्लेक्सिक्स, अमिताभ बच्चन की फिल्म पा में प्रोगेरिया, शाहरुख खान की फिल्म माई नेम इज खान में एस्पर्जर के बाद अब रितिक रोशन की फिल्म गुजारिश का इंतजार है। गुजारिश में रितिक रोशन पैराप्लेजिक के मरीज की भूमिका में है।
दुर्लभ प्रकार की बीमारियों से इक्के-दुक्के लोग ही पी‹िडत रहते हैं। विश्वभर में ऐसी दुर्लभ बीमारियों के कुछ ज्यादा नहीं ८००० लोग ही पी‹िडत हैं। भारत में अब इनकी दस्तक से कई गंभीर प्रश्न ख‹डे हो गए हैं। सिर्फ मरीज ही नहीं वरन पूरे परिवार का सामाजिक ताना-बाना इससे बिग‹ड जाता है। निधि का सीमित संसार१० वर्षीय निधि के पिता प्रसन्ना बताते हैं कि जब उन्हें यह पता चला कि उनकी पुत्री किसी दुर्लभ बीमारी से पी‹िडत है तो उन्हें पहले तो कुछ समझ में नहीं आया। सिर्फ यही समझ में आया कि बेटी को कोई ब‹डी बीमारी हो गई है। दरअसल, इस बीमारी में मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं। बच्चों और किशोरों में लीवर ब‹डा हो जाता है और इसकी परिणति गंभीर हृदयाघात में हो जाती है और यह असामयिक मौत का कारण भी बन जाते हैं। बंगलूरु की निधि ने कभी घर के बाहर कदम नहीं रखा है। अपने उम्र के अन्य बच्चों की तरह वह अपने बचपन को व्यक्त नहीं कर सकती। कक्षा चौथी की छात्रा निधि को स्कूल तक छो‹डने उसकी मां जाती है। मां उसे पहले माले पर स्थित क्लास रूम तक छो‹ड कर आती है। निधि न तो चल पाती है और न ही ख‹डी हो पाती है। उससे मिलने सिर्फ फीजियोथेरेपिस्ट ही आता है। उसके दो दोस्त भी हैं लेकिन वे तभी निधि के साथ खेलने आते हैं जब उन्हें घर के बाहर नहीं खेलना होता है। हर रात को निधि वेंटिलेटर पर रहतीहै। वह आधा घंटे से अधिक टीवी नहीं देख पाती है। निधि दुखी स्वर में बताती है कि उसे चित्रकारी पसंद है। लेकिन एक्सरसाइज, होमवर्क, समय पर भोजन और समय पर सोने की पाबंदियों के कारण वह ड्राइंग के लिए समय नहीं निकाल पाती है। निधि यह सब कुछ एक ही सांस में कह जाती है। साफ पता चलता है कि उसे उच्चारण करने में भी परेशानी होती है। इन सबके बावजूद निधि एक डाक्टर बनना चाहती है और अपने जैसी बीमारी के बच्चों का इलाज करना चाहती है। निधि के स्कूल के शिक्षक भी उसके साथ सहयोग करते हैं। वे कभी भी उसे अलग होने या बीमार होने का एहसास नहीं होने देते हैं। निधि के पिता प्रसन्ना और मां शारदा काफी मजबूती से हालात का सामना कर रहे हैं। वे चेहरे पर मुस्कान लिए स्थिति पर काबू पाते हैं। इस दंपति की हालत यह है कि अब दूसरी संतान उत्पत्ति का खतरा मोल नहीं लेना चाहते हैं। उनका कहना है कि उन्हें डर है कि यदि दूसरी संतान भी इस प्रकार की बीमारी से ग्रस्त हुई तो दिक्कत ब‹ढ जाएगी और वे निधि पर भरपूर ध्यान नहीं दे पाएंगे। निधि एक साधारण कन्या की तरह ही पैदा हुई थी। दो साल तक जब वह चल नहीं पाई तो पिता प्रसन्ना ने एक बाल रोग विशेषज्ञ से संपर्क किया। रोग के दुर्लभ होने के कारण डाक्टर को भी नहीं पता था। सो उसने कह दिया कि कुछ बच्चे थो‹डी देर से चलना शुरू करते हैं इसलिए घबराने की कोई जरूरत नहीं है। ब‹डे अस्पताल में जांच कराने पर पता चला कि निञ्च्धि ग्लाइकोजेन स्टोरेज डिसार्डर टाइप २ से ग्रस्त है। यह बीमारी शरीर में शक्कर के एक रूप ग्लाइकोजेन के निर्माण के कारण होता है। चिकित्सकों के अनुसार यह बीमारी दिमाग को असर नहीं करती है इसलिए इसमें एंजाइम रिप्लेसमेंट थेरेपी कारगर साबित होती है। लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह कब तक जीवित रहेगी। प्रतीक-प्रदीप की भी यही कहानीदिल्ली के मंजीत qसह के दो बच्चे १९ वर्षीय प्रतीक औ़र १७ वर्षीय प्रदीप भी एक गंभीर दुर्लभ बीमारी एमपीएस-१ से पी‹िडत हैं। यह भी एक दुर्लभ अनुवांशिक बीमारी है। काफी जांच के बाद पता चला कि ये दोनों ही एमपीएस २ नाम के अनुवांशिक बीमारी से पी‹िडत हैं। मंजीत qसह अपने पुत्रों का सही तरीके से इलाज नहीं करा पाए। क्योंकि इस बीमारी में दी जाने वाली थेरेपी २ लाख रुपए प्रति आवृत्ति थी। हर पंद्रह दिनों में इसकी आवृत्ति करानी प‹डती है। इस हिसाब से उसके दोनों पुत्रों के लिए प्रति माह ८ लाख रुपए की आवश्यकता थी। पुत्रों की उम्र अधिक हो जाने के कारण उसे धर्मादाय संस्थाओं से मदद भी नहीं मिली क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संस्थाएं बच्चों के लिए मदद करती हैं। दोनों ही बच्चे श्रवण व्याधि, इनसोम्निया, त्वचा, बाल की बीमारियों से पी‹िडत हैं। सामान्य qजदगी जी रहे अभिभावकों से प्रतीक की पैदाइश भी सामान्य बच्चों की तरह ही थी। पांच साल की उम्र में प्रतीक पतला होने लगा तो अभिभावकों के लगा कि खानपान की विसंगतियों के कारण ऐसा हो रहा है। मंजीत को तब शक हुआ जब उसने देखा कि प्रतीक अपनी हथेली पूरी तरह नहीं खोल पाता है। वे अपने बच्चे को लेकर एक आर्थोपेडिक के पास गए। तो इस डाक्टर का भी जवाब था कि घबराने की जरूरत नहीं है। हड्डियों के क‹डे हो जाने के कारण ऐसा हो रहा है। आप्थेलमोलोजिस्ट ने भी कहा कि गंभीर होने जैसा कुछ नहीं है। इसके बाद वे जब कार्डियोलाजिस्ट के पास पहुंचे तो उसने पाया कि हृदय के एक वाल्व में छेद है। और हृदय सामान्य से ब‹डा है। इस चिकित्सक ने ही एमपीएस नामक बीमारी का शक जाहिर किया। १९९५ में वे सर गंगाराम अस्पताल पहुंचे। एम्स ने एमपीएस १ नामक बीमारी से ग्रस्त होना बताया। मंजीत बताते हैं कि उनका छोटा बेटा उस समय दो साल का था। चिकित्सकों ने उसकी जांच भी कराने को कहा तो उसका टेस्ट भी पाजिटिव आया।सन १९९९ तक एमपीएस- १ का कोई भी उपचार उपलब्ध नहीं था। २००६ तक दोनों ही भाई एमपीएस- २ से पी‹िडत हो गए थे। उस समय उनके हर्निया में समस्या थी। इस कारण एक तरफ का हर्निया का आपरेशन किया गया। एमपीएस- २ ने मरीजों को शारीरिक और मानसिक रूप से विकृत कर दिया। उनकी शारीरिक वृद्धि रुक गई। लेकिन उनके अंगों का विकास सामान्य रूप से होता गया। इस बीमारी में हड्डियां इतनी कमजोर हो जाती हैं कि वे बिना किसी दबाव के भी टूट जाती हैं। प्रदीप की कमर में इसी प्रकार का एक फ्रैक्चर हो गया था जिसके ठीक होने में वर्षों लग गए थे। इन दोनों भाइयों ने अब प‹ढाई भी छो‹ड दी है। ये दोनों ही कार्टून फिल्में देखते हैं। इंटरनेट और वीडियो गेम खेलते हैं।ऐसी गंभीर अनुवांशिक बीमारियों में मरीज के साथ उनका पूरा परिवार ही पी‹िडत हो जाता। समाज का इनकी ओर देखने के नजरिये में बदलाव की जरूरत है। सरकार को भी ऐसी दुर्लभ बीमारियों की ओर ध्यान देना चाहिए। कम से कम यह तो सुनिश्चित करना चाहिए कि इलाज के अभाव में किसी की मौत न हो।
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